रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शनिवार, 14 जनवरी 2012

विचारधारा पर रंगकर्मियों का भरोसा कम हुआ हैः त्रिपुरारी शर्मा


त्रिपुरारी शर्मा 

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में अभिनय की प्राध्यापिका, नाटककार, निर्देशक, अनुवादक और समाजसेवी त्रिपुरारी शर्मा से राजेश चन्द्र की बातचीत:

हिंदी रंगमंच में जो भी परिवर्तन लाने की कोशिश की गई उसमें अधिकतर रूप के स्तर पर कामयाबी मिली, कथ्य के स्तर पर नहीं। क्या कथ्य रंगकर्मियों को महत्वपूर्ण नहीं लगता या उसकी कमी वे महसूस नहीं करते?

मुझे लगता है पिछले दो दशक में बहुत-सी चीजें हुई हैं जिनका हमारे सांस्कृतिक पर्यावरण पर असर पड़ा है। रंगमंच भी उसी का एक हिस्सा है। इस बीच सोवियत संघ का विघटन, भूमंडलीकरण और बाबरी मस्जिद के विध्वंस जैसी कई महत्वपूर्ण घटनाएं घटी हैं। बड़े पैमाने पर एक धारणा बनी है कि विचारधारा की बहस अब अप्रासंगिक हो गई है। इसका असर रंगमंच पर भी पड़ा है। ‘कला कला के लिए‘ के खिलाफ जो आंदोलन था वह कमजोर हुआ है और इससे संकट बढ़ा है। पहले रंगकर्मी जरूरत से ज्यादा जिम्मेदारी के साथ काम करता था पर जब उसका भरोसा कम हुआ तो कोशिशें-चेष्टाएं भी कम हो गईं। उसने अभिव्यक्ति के दूसरे तरीकों की तलाश शुरू की। रूप के लिए जो काम है उसमें भी कथ्य है पर आज उस कथ्य का महत्व कम हुआ है। विगत दो दशक में संस्थाएं अपनी ही रचनाएं करने की कोशिश कर रही हैं। जरूरी नहीं कि वह नाटक ही हो-कई प्रकार के प्रयोग सामने आए हैं। यह कहना सही नहीं होगा कि कौन-सी प्रमुख धारा है। एक डेल्टा जैसी स्थिति है पर रचनात्मकता में कोई कमी नहीं है। आत्मविश्वास के स्तर पर कमी हो सकती है। हिंदी की बात करें तो उसमें कई प्रकार की रचनात्मकता दिखाई पड़ती है। नार्थ ईस्ट से हाशिये की अभिव्यक्तियां सामने आ रही हैं और वे नए-नए मुहावरे लेकर आ रहे हैं। पहले जैसी मुख्यधारा वाली बात नहीं रही। अलग-अलग अभिव्यक्तियों की जो स्वीकार्यता बनी है वह अच्छी बात है। हिंदी प्रदेश एक भ्रम पैदा करता है। हम भारतीय रंगमंच की बात करते हैं पर ऐसा करते समय यह भूल जाते हैं कि उसकी आत्मा कहां है। जातीयताओं के जो स्रोत हैं उनकी पहचान जरूरी है। रूप को लेकर पूरी दुनिया में एक झुकाव दिखाई पड़ रहा है। इसे हम विधा के विकास के परिप्रेक्ष्य में समझ सकते हैं। कथ्थक की शुरुआत कथा से हुई थी पर आज हम कथा सुनने नहीं जाते। थिएटर एक प्रदर्शन है या अभिव्यक्ति यह प्रश्न विकास से जुड़ा है। उसका अनुभव दर्शक के लिए कितना अर्थवान, सौंदर्यपूर्ण और प्रासंगिक है यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा हो सकता है। भूमंडलीकरण ने मनुष्य को कम महत्वपूर्ण बना दिया है। आज व्यक्ति से उसका अनुभव बड़ा हो गया है-स्त्री और पुरुष दोनों के संदर्भ में, इसीलिए नाटकों में व्यक्ति नहीं दिखाई पड़ता, प्रतीकात्मक चरित्र आते हैं। यह सब भूमंडलीकरण की प्रक्रिया का हिस्सा है ऐसा मुझे लगता है।

क्या यह विचित्र नहीं है कि हम अपने भविष्य, अस्तित्व, नियति, मनुष्य की स्थिति जैसे सरोकारों से अपनी भाषा के मौलिक नाटकों में नहीं बल्कि उधार ली गई भाषा की संरचनाओं में साक्षात्कार करते हैं?

दूसरी भाषाओं के नाटकों से कोई विरोध नहीं होना चाहिए। यह जरूर हो सकता है कि जब इतना सब कुछ उपलब्ध है तो अपने लेखन सामथ्र्य को बढ़ाने का उपाय हो सकता था जो नहीं हो सका। इस दिशा में कोशिशें कम हुईं। पारसी थिएटर में कंपनियां लेखकों से करार किया करती थीं। आज चूंकि शब्द का, स्थापित नाटकों को लेकर काम करने का महत्व और रुझान कम हुआ है इसलिए नाटकों के प्रति लेखकों का आकर्षण कम हुआ है। नाटक अन्य सभी कलाओं से अधिक मानवता का साथी रहा है। उपन्यास और कविताएं बाद में आईं पर नाटक अभिव्यक्ति का सबसे पुराना कलात्मक माध्यम है। संस्कृत साहित्य, ग्रीक साहित्य की जब हम बात करते हैं तो उससे नाट्य साहित्य का ही अर्थ निकलता है इसलिए उसे कमतर समझना या उस पर ध्यान न देना अनुचित है। नाटक की अर्थवत्ता का विस्तार अलग-अलग देशकाल में भी होता रहता है। मृच्छकटिक में काठ की गाड़ी की जगह अगर हम कार का उपयोग करें तो वह आज का नाटक बन जाता है। नाटक की महत्ता साहित्य में हमेशा सबसे ऊपर ही रहेगी।

बहू, अक्स पहेली, रेशमी रुमाल से रूप अरूप तक आपने स्त्री को केंद्र में रख कर ही नाटक लिखे हैं। इन उत्पीडि़त स्त्रियों के पास संघर्ष का राजनीतिक विचार क्यों नहीं है?

बहू जिस समय लिखा, उस समय एक ऐसे चरित्र को सामने लाना भी एक राजनीतिक अर्थ रखता था। वह चरित्र अपने आप में एक जवाब है। मैं चूंकि कई मुद्दों से, नुक्कड़ नाटकों से जुड़ी रही हूं, इसलिए उनसे मेरा सरोकार रहा है। ओदोलन के साथ उसकी एक बड़ी भूमिका है। स्त्री सरोकार के सभी प्रमुख मुद्दों को लेकर नाटक करने का मुझे बड़े पैमाने पर मौका मिला है। इस तरह का जुड़ाव आज भी है पर जब मैं अपना लेखन करती हूं तो मेरा झुकाव जीवन के, समाज के, संवेदनाओं के सूक्ष्म धरातल पर उतरने के प्रति रहता है। जो बात सड़क के लिए उचित नहीं है, जो ज्यादा इंटीमेट है उसे लेकर मंच पर क्यों नहीं काम किया जाए? मैं मानती हूं कि किसी राजनीतिक फोरम के लिए और मंच के लिए किए जाने वाले नाटक का महत्व समान भले हो पर उनके शेड्स भिन्न होंगे। नुक्कड़ पर संप्रेषण के तरीके अलग होते हैं क्योंकि वहां की जरूरत अलग होती है। नाटक के पात्र और लेखक के विचारों की पूर्ण एकता हो यह आवश्यक नहीं होता। असहमति के बावजूद कोई चरित्र लेखक का प्रिय पात्र हो सकता है। रचनात्मक लेखन विचार से बंधा नहीं होता। वह अपनी यात्रा में आगे भी जा सकता है और कुछ पीछे भी रुक सकता है। यही उसकी खूबसूरती है।

आपने निजी लेखन के साथ सामूहिक तौर पर भी नाट्य लेखन किया है। दोनों प्रक्रियाओं में क्या अंतर महसूस किया?

सामूहिक लेखन एक तरह से बहुत-सी दीवारें तोड़ता है और उसमें बहुत-से पहलू खुलते हैं। उन्हें समेटना, एक शक्ल देना बहुत चुनौतीपूर्ण हुआ करता है। आप अपने विचारों को खुल कर सामने रखते हैं तब जाकर कुछ निकल कर आता है। इस प्रक्रिया में विश्वास, आत्मीयता की जरूरत होती है। यह अलग बात है कि जो निकल कर आता है उसकी गुणवत्ता क्या होती है। कई बार इस प्रक्रिया की सीमाएं होती हैं। इसमें समूह की भूमिका काफी अहम हुआ करती है। निजी लेखन में एक रचनात्मक दबाव काम करता है। एक कठिन यात्रा से गुजर कर यह संभव हो पाता है। उसका जो सृजनात्मक प्रभाव है, वह आप पर काफी प्रभाव डालती है-आपके अंदर उथल-पुथल मचाती है। उसके कई स्तर होते हैं। उसके दौर, उसकी उड़ान को आप निर्देशित करते हैं जो सामूहिक लेखन में नहीं भी हो सकता है। समूह अगर परिचित हुआ तो आपका काम आसान हो जाता है क्योंकि आप उसकी सीमाओं को समझने लगते हैं। सामूहिक प्रक्रिया के भी कुछ नियम तो होते ही हैं जो उस रचना को परिभाषित करते हैं। निजी लेखन में आप परिभाषाएं बदल सकते हैं। कई बार मूल विचार तक पीछे छूट जाता है पर इससे किसी और को असुविधा नहीं होती। यह दोनों प्रक्रियाएं महत्वपूर्ण हैं। रचनात्मक लेखन एक रहस्य ही होता है जिसका अंतिम रूप क्या होगा आप नहीं जान पाते।

उत्सवों को लेकर हमारे नाट्य केंद्रों में जितनी दरियादिली और तत्परता है वैसी रंगमंच की मूल समस्याओं के निराकरण को लेकर क्यों नहीं है?

उत्सव संस्कृति एक इवेंट संस्कृति का ही हिस्सा है। इसके दो पहलू हैं-एक तो यह है कि जब इवेंट बनता है तो यह लोगों को आकृष्ट करता है। दूसरा जो एक ट्रेंड चला है वह है छोटे शहरों में उत्सव आयोजित करने का। यह काफी सकारात्मक है। यह जो एक रुकावट थी कि हम दूसरे लोगों का काम देख नहीं पाते थे वह इससे दूर होगी पर इसके जो आर्थिक पहलू हैं, प्रबंध के मुद्दे हैं उन्हें समझना होगा। हिंदी क्षेत्र में गंभीर रंगमंच अगर जीवित है तो शौकिया दलों और लोगों की वजह से। शौकिया नहीं बल्कि आर्थिक स्तर पर यदि उन्हें अव्यावसायिक नाट्य दल कहें तो उसे दुबारा परिभाषित करने की जरूरत है। थिएटर में एक निरंतरता जरूरी है। वह लोगों की जिंदगियों का हिस्सा बने यह सबसे जरूरी है। मैं उत्सवों की आवश्यकता से इनकार नहीं करती क्योंकि कभी-कभी वे सकारात्मक भूमिका निभाते हैं। यह प्रश्न थिएटर का उतना नहीं जितना थिएटर वालों का है। दिल्ली में आॅडिटोरियम महंगे हो चुके हैं पर वे कभी खाली नहीं मिलते। समस्या मूलतः वितरण की असमानता से जुड़ी है। जीवन के दूसरे हिस्सों में जो असमानता है थिएटर उससे  कैसे बचा रह सकता है? यह स्थिति दर्शाती है कि आने वाले वक्त में थिएटर किनके हाथों में होगा, थिएटर वालों के या आयोजकों के। भारत रंग महोत्सव की एक बड़ी भूमिका यह है कि इससे थिएटर को सेलिब्रेट करने का एक मौका मिलता है। बाजार की ओर से जो रुझान आया है उसे सही परिप्रेक्ष्य में समझने और उसमें प्लेयर बनने की जरूरत है। थिएटर करने वालों को इस मौके का फायदा उठाना चाहिए। क्षेत्रीय स्तर पर भी रचनात्मकता के लिए स्पेस बचे इस दिशा में सोचना होगा। एक जो इनोसेंस या निश्छलता थिएटर में है मैं उसका बहुत आदर करती हूं।


राजेश चन्द्र  - कवि, रंगकर्मी, अनुवादक एवं पत्रकार. विगत दो दशकों से रंगान्दोलनों, कविता, सम्पादन और पत्रकारिता में सक्रिय। हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, आलेख और समीक्षाएँ प्रकाशित। उनसे rajchandr@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. 

1 टिप्पणी: