रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

कहाँ मिलेगा अलखजी जैसा गुरु

अलखनंदन 
अलखनंदन जी के निधन से रंग जगत शोकाकुल है. उन्हें श्रधान्जली स्वरुप पंकज शुक्ला जी का यह नोट्स. उन्होने इस फेसबुक पर डाला था. हम मंडली के साथियों के लिए आभार सहित यहाँ प्रस्तुत कर रहें हैं. अगर आप भी कुछ लिखना चाहें तो मंडली पर आपका हार्दिक स्वागत है. आप अपने आलेख punjprak@gmail.com पर भेज सकतें हैं. हमें खुशी होगी आपके लिखे को दूसरे कलाप्रेमियों तक पहुंचाके.

अलखजी नहीं रहे...यह खबर एक बेहतर इंसान के जाने की सूचना ही नहीं है बल्कि संभावनाशील कलाकारों के लिए सफलता का एक द्वार बंद होने जाने की अनचाही घटना है। अलखजी के रूप में एक और 'गुरु" का चले जाना है जो सीखने के लिए शिष्य को पूरी स्वतंत्रता देता था। जो पल भर में शिष्य की पूरी क्षमताओं का आकलन कर लेता था और फिर उसे अभिव्यक्ति के आकाश पर सबसे ऊँचा उड़ने की आजादी दे देता था। 

अलखजी के व्यक्तित्व के अनगिनत पहलू हैं जिन पर बात की जानी चाहिए लेकिन उनका 'गुरु" पद ही इतना विराट है कि उसका 'खो जाना" समाज के लिए प्राणतत्व का मिट जाना है। वे सही मायनों में उस गुरु की तरह से थे जो बाहर से कठोर और भीतर से नर्म दिल होता है। खरी-खरी कहने वाला 'दबंग" गुरु। शिष्यों से पूछिए, वे बताएँगे कि अलखजी का गुरुरूप कितना विराट था-'दादा, तब तक अभ्यास करवाते थे जब तक कि अभिनय से संतुष्ट नहीं हो जाते... वे फटकारते थे और तब तक मेहनत करते जब तक कि मनचाहा काम पा न लेते... तारीफ भले कम मिले लेकिन अलखजी की डाँट जरूर मिल जाती थी...।" 

इसी रूप ने 'नट बुंदेले" खड़ा किया। संगीतकार ओमप्रकाश चौरसिया, इरफान सौरभ जैसे वरिष्ठ सर्जकों से लेकर उनके पुत्र अंशपायन और हेमंत देवलेकर जैसे नवागत कलाकारों ने अलखजी में कोई एक बात समान पाई तो वो थी शिष्यों को खुलापन देने वाला रूप। पं. चौरसिया ने अलखजी के साथ तब काम किया था जब अलखजी भोपाल आए थे यानि 1983-86 के दौरान। इसी दौरान इरफान सौरभ भी जुड़े जो कारंतजी के बाद 'महानिर्वाण" का चर्चित पात्र 'भाऊराव" के लिए अलखजी की पहली पसंद बन गए थे। दोनों बताते हैं कि अलखजी ने कभी हमारे काम में दखल नहीं दिया। वे इतनी आजादी देते थे कि आप कम से समझौता नहीं कर पाते और यादगार सृजन हो जाता। नए कलाकारों ने उनके संग पिछले नवंबर में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं को मंचित किया था। वे अलखजी की शिक्षा कभी भूल नहीं पाएँगे।  नए और पुराने की साझेदारी के हिमायती अलखजी ने भोपाल में तीन दशकों की यात्रा में कई पड़ाव रचे हैं। शिष्यों के रूप में खड़े किए गए उनके 'माइलस्टोन" उनकी इस यात्रा की गवाही देते रहेंगे। 'नट बुंदेले" के जरिए रंग जगत में लोक संस्कृति को स्पंदन करने वाला 'कबीरा" अपने 'महानिर्वाण" के बाद बहुत याद आएगा...।
वकौल अलखजी - रंगमंच की पहली शर्त है - नयापन, निरंतर प्रयोगशीलता और परम्परा बोध. जिस वर्तमान रंगमंच को परम्परा बोध नहीं वह नश्वर तथा खोखला प्रयास है.और जिस परम्परा को वर्तमान की अनियमिततायों से दो चार होना नहीं पता है, वह रूढ़िवादी है.

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