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शुक्रवार, 18 मई 2012

इंमरजेंसी में कार्टून : नीरज गुप्ता



नीरज गुप्ता का यह आलेख आई बी एन खबर से साभार साथ में केशव शंकर पिल्लै उर्फ शंकर के कुछ कार्टून | 

तो अब तय है कि चेहरे पर मुस्कुराहट के रंग भरने वाली काली स्याही की वो आड़ी तिरछी लकीरें स्कूली किताबों से गायब हो जाएंगी। सरकार ने माफीनामे के साथ एलान कर दिया है कि एनसीईआरटी की किताबों से सियासी कार्टून हटेंगे। और तो और इस 'संगीन' मसले में एनसीईआरटी के अफसरों-सलाहाकारों की भूमिका की जांच भी की जाएगी।
11 मई, 2012 को लोकसभा में अचानक हंगामा मचा और सदन की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी। हंगामे की वो हवा राज्यसभा तक भी पहुंची और और वहां भी छुट्टी की घंटी बज गई। वजह थी एनसीईआरटी की ग्यारहवीं की सोशल साइंस की किताब में छपा एक कार्टून। उस कार्टून में जवाहर लाल नेहरू एक घोंघे को कोड़ा मार रहे हैं। घोंघे पर लिखा है- 'संविधान' और उस पर सवार हैं संविधान निर्माता बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर। यानी संदेश ये कि संविधान निर्माण का काम घोंघा-चाल से चल रहा है और नेहरू उसे तेज़ करना चाहते हैं।
अब साहब...इस संदेश ने हमारे सांसदों को इस कदर कचोटा कि उन्होंने कमबख्त कार्टून पर ही कोड़े बरसाने शुरू कर दिए। बीजेपी, कांग्रेस, लेफ्ट, डीएमके, एसपी, बीएसपी, आरजेडी, अकाली दल और शिवसेना। सबका एक ही सुर- ये सियासतदानों की इज़्जत (अगर बची है तो) पर हमला है। इन पार्टियों में वो शिवसेना भी थी जिसके सुप्रीमो बाला साहब ठाकरे खुद एक बहुत बड़े कार्टूनिस्ट रहे हैं। इन पार्टियों में वो बीजेपी भी थी जिसके, पत्रकार रहे, वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने 26 सितंबर 2010 को दिल्ली के प्रैस क्लब में एक कार्टूनिंग प्रदर्शनी के मौके पर कार्टून की अहमियत पर बड़ा जो़रदार भाषण दिया था। लेकिन फिलहाल मामला चूंकि अंबेडकर से जुड़े कार्टून का है, दलित वोट बैंक का है, लिहाज़ा कोई भला पीछे क्यों रहे।
20वीं शताब्दी के चर्चित और महान कलाकार पेब्लो पिकासो ने कहा था- 'जी हां.. कला खतरनाक है और अगर वो बहुत शालीन है तो कला नहीं है।' लेकिन पिकासो को भला क्या पता था कि 21वीं सदी में कला का सामना उस खतरनाक प्राणी से होने वाला है जिसे 'नेता' कहते हैं और जो कला के साथ-साथ कलाकार को भी कच्चा चबा जाने का जबड़ा रखता है। इसीलिए तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने खुद पर कार्टून बनाने वाले को जेल की हवा खिला दी। मकबूल फ़िदा हुसैन, तस्लीमा नसरीन और सलमान रुश्दी से जुड़े कलंकित किस्से तो खैर सबको पता ही हैं। यानी हमारे समाज के चंद ठेकेदार कला और साहित्य को भी गले में पट्टा डले 'पालतू' की तरह रखना चाहते हैं।
खैर, लौटते हैं विवाद की जड़ बने 'कोड़े वाले' उसी कार्टून पर। 28 अगस्त 1949 को छपे उस कार्टून के रचियता थे केशव शंकर पिल्लै उर्फ शंकर। पद्म विभूषण शंकर को भारत में राजनीतिक कार्टूनिंग का पितामह कहा जाता है। 1932 से 1975 तक बदस्तूर छपे शंकर के चुटीले कार्टूनों का कोई संग्रह आप आज भी पलट लें तो उस दौर के सियासी इतिहास से रूबरू हो जाएंगे। बेहद गुदगुदे अहसास और होठों पर मुस्कुराहट के साथ। गांधी जी, जवाहर लाल नेहरू, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, जी बी पंत यानी आज़ादी की लड़ाई के किसी भी नेता का नाम लीजिए। शंकर का उन सबसे साथ निजी लगाव था। लेकिन कागज़ पर खींची अपनी लतियाती लकीरों में शंकर ने किसी को नहीं बख्शा।
एक बार शंकर को दिल्ली के लेडी इरविन कॉलेज के दीक्षांत समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाया गया। शंकर ने राजधानी के मशहूर महिला कॉलेज की बेधड़क युवतियों को उनकी डिग्रियां थमाईं। अगले दिन 'हिंदुस्तान टाइम्स' में एक कार्टून छपा जिसका शीर्षक था- ' Thinking of opening a Lipstick Service Station at Connaught Place'। कार्टून ने बवाल खड़ा कर दिया। अखिल भारतीय महिला कॉंफ्रेंस की अध्यक्ष राजकुमारी अमृतकौर ने इसकी शिकायत अखबार के संपादक से की। मामला इतना बढ़ा कि गांधी जी के दरबार तक जा पहुंचा। आगबबूला अमृत कौर ने शंकर के खिलाफ अपनी चार्जशीट गांधी जी को सुनाई। इसके बाद शंकर ने सफाई दी। गांधी जी ने शंकर की सफाई सुनी और ठहाका मारकर कहा- 'जाओ शंकर, तुम्हें बाइज़्जत बरी किया जाता है।' और मामला सुलझ गया। लेकिन अब गांधी तो रहे नहीं, अब तो गांधी के चेले हैं जिन्होंने 'गुरु' की नसीहतों को मौकापरस्ती की अलमारी में रखकर दरवाज़े की चिटकनी चढ़ा दी है।
कहते हैं कि नेहरू खुद पर छपे कार्टून बेहद पसंद करते थे और शंकर के कार्टून तो नेहरू की कमज़ोरी थे। इसीलिए नेहरू और शंकर की खास दोस्ती भी थी। 1948 में शुरू हुई साप्ताहिक पत्रिका शंकर्स वीकली भारत में कार्टूनिस्टों की फैक्ट्री रही है। अबु अब्राहम, रंगा, कुट्टी, उन्नी और भी ना जाने कौन कौन। उसी शंकर्स वीकली का पहला अंक जारी करते हुए नेहरू ने अपना मशहूर वाक्य कहा था- Don't Spare Me Shankar (शंकर मुझे भी मत बख्शना)।
लेकिन नेहरू की बेटी इंदिरा शायद उतनी फिराक़दिल नहीं थीं। इमरजेंसी में शंकर्स वीकली पर प्रतिबंध लगा। इससे आहत शंकर ने शंकर्स वीकली का प्रकाशन बंद कर दिया। 27 जुलाई 1975 को पत्रिका का आखिरी अंक निकालने के बाद शंकर ने सियासी कार्टून बनाने बंद कर दिए और अपना पूरा ध्यान बच्चों के काम पर लगा दिया।
लेकिन माफ करना शंकर..आज अलग तरह की इमरजेंसी है। इस वक्त अगर आप होते तो आपको बच्चों के लिए भी काम करना बंद करना पड़ता।

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