रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

रंगविमर्श के सात सौ तीस दिन के बहाने


पुंज प्रकाश

वर्चुअल स्पेस पर रंगमंच और सम्बंधित कला के बारे में संवाद व रंगमंच के दस्तावेज, विमर्श, संस्मरण, रंग समीक्षा आदि उपलब्ध करा सकने के  संकल्प के साथ शुरू हुआ ब्लॉग रंगविमर्श आज सात सौ तीस दिन उर्फ़ दो साल पूरा कर रहा है. ज्ञातव्य हो कि इस ब्लॉग की शुरुआत 18 अक्टूबर 2010 को हुई थी. इस घटना से एक युग पहले की बात है, तब हिंदी के अधिकतर अखबारों में कला और संस्कृति नामक पन्ना प्रकाशित हुआ करता था. इन पन्नों पर नाटकों, गीत, संगीत, नृत्य, सांस्कृतिक कार्यक्रमों आदि पर समीक्षात्मक व सूचनात्मक आलेखों का प्रकाशन होता था. नाटक से सम्बंधित ख़बरें और सूचनाओं का प्रकाशन तो प्रस्तुति के दौरान चलता ही रहता था. तब समाचार का मूल माध्यम अखबार, रेडियो तथा दूरदर्शन हुआ करता था. फिर उदारीकरण और बाज़ारवाद का दौर चला और समाचार चैनलों की कुछ ऐसी बाढ़ आई कि लगा अखबार अब बस कुछ ही दिनों के मेहमान हैं. पर ऐसा हुआ नहीं. हाँ, अखबारों ने इस दौरान अपना स्वरूप ज़रूर बदल लिया और धीरे- धीरे उन सारी चीज़ों को गायब करता चला गया जो ‘गंभीर’ की श्रेणी में आते थे. जहाँ तक सवाल कला और संस्कृति से जुड़ी ख़बरों और पन्नों का है तो वो इन अख़बारों से ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सिर से वोगायब होता है.
उन दिनों पटना के एक बड़ा दैनिक अखबार ने बदलाव का झंडा बुलंद करते हुए जब कला संस्कृति का पन्ना बंद करने का निर्णय लिया तो पटना के कुछ ‘चिंतनशील’ संस्कृतिकर्मी अखबार के सम्पादक महोदय से रंगकर्मियों का एक प्रतिनिधिमंडल लेकर मिलने जा पहुंचे. सम्पादक महोदय ने साफ़-साफ़ शब्दों में पूरी इमानदारी से कह दिया कि आज अखबार में गंभीर बातें कोई पढ़ना नहीं चाहता, ‘ऊपर’ से दवाब है और कला-संस्कृति से जुड़ी ख़बरें पढता ही कौन है ? केवल चंद लोगों के लिए अखबार अपनी जगह ‘अब’ बर्बाद नहीं करना चाहता! ये तर्क ठीक महेश भट्ट साहेब वाला ही तर्क है जो उन्होंने ‘जिस्म’ सिरीज़ की फिल्मों को बेचने के लिए दिया था कि लोग जो देखना चाहते हैं हम वो बनाते हैं. यानि कि लोग बिज़नेसमैन पहले हैं कलाकार और सम्पादक बाद में.
उस पूरे मामले का लब्बोलुआब ये कि समझ में आ गया कि लोकतंत्र का चौथा खंभा भी पता नहीं कब का चरमरा चुका है ( वैसे लोकतंत्र भी कहाँ सही सलामत है.) और वहाँ से सम्पादक नामक चीज़ कब के मैनेज़र नामक खिलौने में परिवर्तित कर दिए गए हैं. जिसे कोई बड़े तोंदवाला उद्योगपति जैसे चाहे वैसे अपने इशारों पर नाचता है. अब जनपक्षियता और जनसरोकार का मुखौटा पहनना इनकी मजबूरी है तो बेचारे चाहकर भी इस मुखौटे से अपना पीछा नहीं छुडा सकते. इसके लिए इन्हें हर रोज़ कोई न कोई ढोंग ( खुलासा ) करते रहना पड़ता है. जहाँ तक सवाल टेलिविज़न पत्रकारिता का है तो इनकी भी हालत एक बिगडैल किशोर से कुछ ज़्यादा अच्छी नहीं है. इनका सारा ध्यान टीआरपी नामक तोते ने ही कैद कर लिया है तो आज भी इनके पास साहित्य, कला और संस्कृति आदि जैसे विषयों के लिए कोई खास और सम्मानित जगह नहीं है. हाँ, सिनेमा, क्रिकेट और राजनीति पर रोज़-ब-रोज़ गॉसिप करने के लिए इनके और इनके स्टार एंकरों के पास प्राइम टाइम में भी समय ही समय है. यहाँ नाटक की प्रस्तुति, लेखन या कोई साहित्यिक व सांस्कृतिक गतिविधि पर खबर और उस पर बातचीत भी एक सार्थक चीज़ हो सकती है यह बात शायद ही किसी भी चैनल हेड के सपने में भी आती हो! जहाँ तक सवाल इससे सम्बंधित ख़बरों, समालोचनाओं को पढ़ाने-देखने का है तो जब आज भी संस्कृतिकर्म हमारे समाज, हमारी शिक्षा आदि का कोई अंग ही नहीं बन पाया है या बनाने का प्रयास ही नहीं किया गया तो कोई इसपर अपना समय क्यों बर्बाद करे भला.    
नाट्यालोचना नाटक का एक अतिमहत्वपूर्ण अंग होते हुए भी ठीक उसी तरह उपेक्षित है जैसे समाज में खुद रंगमंच. साल में किसी तरह ( सरकारी-गैरसरकारी अनुदानों या फिर अपने पैसे से ) कुछ नाटकों को मंच पर निरुदेश्य प्रस्तुत करके आज आत्ममुग्धता का पारा इतना गर्म है कि ताउम्र रंगमंच की सेवा करने की कसमें खानेवाले रंगकर्मियों में भी नाट्यालोचना के प्रति ( अधिकांशतः ) कोई खास सम्मान का भाव नहीं है. नाट्य-समीक्षा चाहे कितनी भी बेहतरीन क्यों न हो अगर किसी नाट्यालोचक ने ‘उनका’ नाम नहीं लिखा है तो उनके लिए पूरा लेखन ही निर्थक है. बल्कि स्थिति तो इतनी खराब है कि नाटकों पर आलोचनात्मक टिपण्णी करने पर समीक्षक/आलोचक को देख लेने की धमकी से लेकर व्यक्तिगत दुशमनी ठान लेने की प्रथा भी ज़ोरों पर है. हाँ अगर नाटक और ‘उनकी’ वाह वाह है और भले ही समीक्षा सतही हो तब कोई शिकायत नहीं. वहीं दूसरी तरफ़ वो भी आलोचक व समीक्षक बनने से बाज़ नहीं आते जिन्हें नाटक का कोई खास ज्ञान नहीं-न सैधांतिक और ना ही व्यावहारिक. इनके लिए किसी नाटक पर लिखना और किसी भैंस ने चार बच्चे दिए की खबर में कोई खास फर्क नहीं. ये दोनों ही बातें इनके लिए बस चंद पैसा, छपास सुख या नाम कमाने का एक ज़रिया मात्र है. अख़बारों की हालत तो इतनी खस्ती है कि बिना नाटक देखे ही तारीफों की बौछार कर डालतें हैं और दशक की बेहतरीन प्रस्तुति तक लिखने से बाज़ नहीं आते. कुछ नाट्य समीक्षकों में तो जैसे एक फर्मा सा ही बना लिया है जिसमें वो केवल नाम बदलते रहतें हैं. ये बस फलां चीज़ प्रभावित करती हैं, फलां ने कमाल का अभिनय किया, थोड़ा सा इस दिशा में ध्यान देने की आवश्यकता है आदि चलताऊ चीज़ें लिखकर ही धन्य हो जातें हैं. इस बात का इन्हें कोई भान ही नहीं होता की कोई चीज़ अच्छी या बुरी है तो उसके पीछे के कारकों की पड़ताल करना इनका काम है रूटीनी अच्छा-बुरा लिखना नहीं. ऐसे समय में नाटक सम्बंधित और नाट्य-समीक्षा केंद्रित किसी ब्लॉग के संचालन का निर्णय लेना और अपनी तमाम सीमाओं और व्यस्तताओं के वाबजूद लगातार संचालन अपने आप में ज़्यादा तो नहीं मगर कुछ ज़रूर कहता है.
सहज और संकोची स्वभाव के युवा अमितेश कुमार द्वारा संचालित, रंगमंच केंद्रित ब्लॉग रंगविमर्श की दो साल की अवधि सफलता, निरंतरता और निरपेक्षता के लिहाज़ से एक महत्वपूर्ण कदम है. अमितेश रंगमंच के न केवल एक कट्टर दर्शक हैं बल्कि इस विषय पर सीखने, सिखाने, पढ़ने, पढ़ाने और पुस्तकालयों की खाक छानने वाले एक सहृदय दर्शक सह-समालोचक भी हैं. दिल्ली की कोई महत्वपूर्ण नाट्य प्रस्तुति शायद ही इनसे बचके निकल पाती है, चाहे वो कैम्पस थियेटर हो, ग्रुप थियेटर हो अथवा प्रोफेशनल थियेटर. ये टिकट खरीदकर नाटक देखनेवाले युवा रंग-चिन्तक हैं. ये न केवल नाटक देखतें हैं बल्कि अपने मित्रों, रिश्तेदारों आदि को भी नाटक देखने, उस पर सहजतापूर्वक बात करने और लिखित रूप में प्रतिक्रिया देने के लिए प्रेरित भी करतें हैं और इन प्रतिक्रियाओं को पूरी शिद्दत के साथ ‘रंगविमर्श’ पर प्रकाशित भी करतें हैं. साथ ही ये बात शायद बहुत ही कम लोगों को मालूम है कि ये अभिनेता और निर्देशक भी रह चुकें हैं. इन्होनें कर्ण और भगत सिंह जैसी भूमिकाओं का निर्वाह अपने गाँव में छठ पूजा के अवसर पर होने वाले नाटकों में किया है. हालांकि अमितेश स्वयं अपने आपको एक अभिनेता-निर्देशक मानने से संकोच करतें हैं फिर भी ये तो कहा ही जा सकता है कि रंगमंच पर इनकी समझ केवल अकादमिक नहीं बल्कि व्यावहारिक भी है.
एक ऐसे समय में जहाँ लिखना-पढ़ना आज तक अधिकतर रंगकर्मियों की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं हो पाया है वहाँ इस ब्लॉग पर हबीब तनवीर, बलराज साहनी, महेश आनंद, राजेश जोशी, हृषिकेश सुलभ, सत्यव्रत राउत, मुकेश गर्ग, कन्हैयालाल नंदन, अमितेश कुमार, मुन्ना कुमार पांडे, राजेश चंद्र, मृत्युंजय प्रभाकर, स्वाति सोनल, अभिषेक नंदन, मुकेश गर्ग, स्मृति, प्रकाश झा, भाष्कर झा, मनीष जोशी और नुरानी इत्यादि लेखकों-रंगकर्मियों द्वारा कला संस्कृति एवं रंगमंच पर केंद्रित लगभग 115 पोस्टों का प्रकाशन अपने आप में कोई बहुत बड़ी उपलब्धि तो नहीं पर एक संतोषजनक कदम तो माना ही जाना चाहिए. मामला और भी ज़्यादा संवेदनशील तब हो जाता है जब यह एक जूनून के तहत अपना समय, श्रम और धन लगाकर किया जा रहा हो. तकनीकी क्रांति के इस युग में जब अधिकतर समर्थ रंगकर्मी लैपटॉप पर दबाकर फेसबुक-फेसबुक खेल रहे हों, क्या आज हम ये सपना देख सकतें हैं कि आत्ममुग्धता का दामन त्यागकर देश के हर रंग समूह, चिंतनशील रंगकर्मियों व नाट्य चिंतकों, लेखकों, आलोचकों के पास अपना एक ब्लॉग हो, जहाँ वे निरंतर अपनी गतिविधियों के साथ साथ विचारों, आलेखों, समीक्षाओं आदि का आदान-प्रदान करें ? इससे सूचनाओं और रंगमंच सम्बन्धी विचारों का आदान प्रदान और विमर्श के एक नई धरातल की शुरुआत होगी.
रंगविमर्श का लगातार दो साल तक सफल संचालन अपने आप में कोई बड़ी उपलब्धि हो न हो पर इसका किसी खास व्यक्ति, संस्थान या रंग-समूह के प्रति कोई खासलगाव के बजाय भारतीय रंगमंच केंद्रित जनपक्षीय स्वभाव रंगविमर्श को एक अलग स्थान प्रदान करता है. अपने इस निरपेक्ष और सार्थक रंगप्रयोग को सार्थक एवं निरर्थक को निरर्थक कहने के स्वभाव के कारण ही आज रंगविमर्श रंगप्रेमियों के बीच एक तेज़ी से स्थापित होता हुआ ब्लॉग है. साथ ही इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि अपने इसी तेवर की वजह से ये आज रंगमंच के कई मठाधीशों की आँख की किरकिरी भी है.
रंगविमर्श पर मूलतः दिल्ली केंद्रित नाट्य-समीक्षाओं व आलेखों का प्रकाशन हुआ है इसे एक मात्र इतेफाक ही कहा जा सकता है, पर रंगविमर्श ने देश के अन्य शहरों में हो रहे रंगकर्म को भी कभी कमतर करके नहीं आँका है और जब भी संभव हुआ उनपर नाट्य-समीक्षाओं, रपटों व आलेखों का प्रकाशन किया है. दिल्ली और खासकर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में चल रहा रंगमंच ही रंगमंच की मुख्यधारा है ऐसा रंगविमर्श में प्रकाशित सामग्रियों को पढ़ाने से ध्वनित नहीं होता. यहाँ किसी भी व्यक्ति या संस्थान के नाम के आतंक से ज़्यादा काम की सार्थकता का स्थान है. किसी भी बड़े नाम पर बेवाक टिपण्णी रंगविमर्श के कई आलेखों में साफ़-साफ़ पढ़ी जा सकती है. यहाँ रंगमंच करनेवालों का स्थान रंगमंच के पश्चात् है पूर्व नहीं अर्थात काम पहले व्यक्ति या संस्थान बाद में. आज ये बात बड़े-बड़े रंग-संस्थानों और अकादमियों में भी गधे की ‘उसकी’ तरह गायब है. हर ओर बस सर, मैडमों और चमचों का राज है.
धारा के विपरीत रंगविमर्श का विमर्श यूं ही सतत प्रवाह से बहता रहे और आनेवाले समय में रंगमंच केंद्रित ऐसे लाखों ब्लॉग विजुअल दुनिया में आयें और छा जाएं इसी कामना के साथ जहाँ तक मेरी जानकारी है हिंदी में रंगमंच केंद्रित और सफलता पूर्वक संचालित पहला ब्लॉग रंगविमर्शही है. इस विषय में किसी सज्जन के पास कोई और जानकारी हो तो ज़रूर ही बंटा जाना चाहिए. बहरहाल, रंगविमर्श पर प्रकाशित कुछ बेहतरीन पोस्टों को पढ़ने के लिए आप नीचे दिए लेबलों पर क्लिक कर सकतें हैं. -  'मंटोनामा' कालेज में,  रंगमंच के नए रंग, दिल्ली में पीया बहुरुपिया, दस्ताने-ए-मंटो, रंगमंच के जनक्षेत्र में एक दर्शक का खुला पत्र, एकल और ग्लोबल कूड़े का रंगमंच, एकल अभिनय, अभिनेता का स्पेस, नाटक करना ही क्रांति है, हिंदी थियेटर का स्पेस, स्पेसेस आफ थियेटर एंड स्पेसेस फॉर थेयेटर, अभिनेता/ निर्देशक/ सिनेमा/ रंगमंच, रंग महोत्सवों की बाढ़ के निहितार्थ, ताज़गी और उठान के राजनीतिक नाटकों की वापसी, उत्सवों का भेडियाधसान में सरोकारों का चुटकुला, प्रति रंगमंच, सिल्क स्मिता, लहू है कि तब भी गाता है, भारत रंग महोत्सव में कितना भारत, कोलकाता हिंदी रंगमंच का इतिहास, मुक्ति का महान पर्व : समां चकेवा, बर्तोल्त ब्रेख्त, बहादुर कलारिन, प्रतिरोध का असमंजस पुराण, मंच से गायब होता रंग, हबीब का मतलब, जनकवि भिखारी ठाकुर, एकांत के रंग, लोकतंत्र वाया रंगमंच, नाटकों की सेंसरशिप और पुलिस, एक आत्मीय वार्ता हबीब साहेब के साथ, सिनेमा और स्टेज, भोजपुरी के सांस्कृतिक दूत : भिखारी ठाकुर, मचान थियेटर, सूत्रधार की रंगछावियाँ, नाटक है, रंगकर्म है, विमर्श नहीं, इक्कीसवीं सदी का रंगमंच, तथा ब्लॉग का पहला पोस्ट क्या हुआ? हबीब तनवीर आदि. 

5 टिप्‍पणियां:

  1. शीर्षक से यह लग सकता है कि यह 'रंगविमर्श' पर लिखा लेख है लेकिन गौर कीजिए कि बहाने से है. ऐर इस बहाने के बहाने नाट्यालोचना की पड़ताल है. मुख्यधारा की मीडिया में इसकी जगह नहीं के बराबार है. नई मीडिया में भी इसकी जगह अभी उतनी नहीं है. रंगमंच के ब्लाग ही अभी कितने हैं? और रही बात हिंदी के आलोचना जगत की तो उसमें भी रंगमंच पर आलोचना अब नहीं है. हिंदी आलोचना के जनक्षेत्र से रंगमंच के आलोचक बाहर हैं, उन्हे कदाचित कोई आलोचक माने. इसीलिये लघु पत्रिकाओं में या मासिक साहित्यिक पत्रिकाओं में रगमंच की जगह नहीं है या अपवाद स्वरूप ही है. रंग प्रसंग और नटरंग जैसी पत्रिकाओं की अनियमितता ने भी रंग आलोचना को मंद किया है. ऐसे में रंगविमर्श के माध्यम से हमने अपनी भूमिका की तलाश की और शुरू किया. अगर रंगजगत में इसकी धमक है या हिंदी आलोचना जगत का ध्यान यह रंग आलोचना की ओर खींचता है तब इसकी सार्थकता है. इसमें इसके लेखकों और पाठको की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है. आभार.

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  2. saat sau tis din pura hone ki badhai. sach much ye itne mahine pura hone ke baraabar hai. khas kar roz balati duniya wale is yug mein. Rang vimarsh par yada kada aana hota hai. lekh ki lagbhag saari baaton se sahmati.

    badhai ek baar fir.

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  3. bahut saargarbhit lekh aur padtaal bhi baraaste rangwimarsh :-) rangwimarsh aur yuva rang aalochak/shodharthi/kattar darshak/rangkarmi/rangchintak amitesh ko is prayaas aur uske 730 din hi nahin balki iske pahle kii bechainiyon ke upraant aur chaaploos culture ke prabhaav mein likhi jaa rahi satahi rang aalochna ke baraksh mathhadheeshon ke prayojit kalamghasitiuon ke saamne amitesh apne is rangwimarsh ke saath dat kar khade hain.khushi kii baat yah hai ki unke blog ka daayra bade naamon ke ird gird chakkar nahin kaatta balki unlogon ko bhi apni baat kahne ke liye apne daayre mein shamil karta hai jo kahin kuch kah nahi paate aur naatakon se unka judaav kisi bhi kattar darshak se kam nahi hai. rangvimarsh ke bahaane samoochi rang aalochna par drishtipaat karne ke liye punj aapko badhai aur amitesh aur unke rangwimarsh ko bhi saadhuvaad ..karm karte rahe likhte rahe keep it up

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  4. tippani thodi jaldbazi mein vaakyagat sanrachna mein tedhi ho gayi hai..kshmaprarthi hoon :-) bhavnaaon ko samjhein

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