रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

सोमवार, 6 जनवरी 2014

क्या बात है कामरेड, लगता है आपकी बेटियां भाग गयीं हैं?

पूरन हार्डी नुक्कड़ नाटक "जनता पागल हो गई है" में.
अभिनेता पूरन हार्डी पर दिनेश चौधरी का यह आलेख कुछ वर्ष पहले का है जो रंगमंच और अभिनय के प्रति पूरन हार्डी के लगन की झलक पेश करती है. अभिनेता अभिनय के प्रति ईमानदार हो तो भले ही उसने अभिनय पर किताबें न पढ़ी हो किन्तु अपने लिए एक मैथर्ड तलाश ही लेता है, जो उसका अपना होता है. हार्डी आज इस दुनियां में नहीं है, पर उनके अनगिनत किस्से डोंगडगढ़ के रंगकर्मियों के जेहन में आज भी ताज़ा हैं. एक बात और बेहतरीन अभिनेता केवल उतने ही नहीं हैं जितने का नाम हम जानते हैं. रंगमंच और अभिनय का दायरा हमारी जानकारियों से काई गुना विशाल है. - माडरेटर मंडली.
   
भागी हुई लड़कियां, शहर में कर्फ्यू और पूरन हार्डी : डोंगडगढ़ (छातीसगढ़) रेलवे स्टेशन के उस छोर पर, जहां मालगाड़ियों को उन्हें धकेलने वाले इंजिनों से जोड़ा जाता है और जहां रिटायर्ड रेल कर्मचारी अड्‌डा मारकर बैठते हैं, पूरन मुझे पहली बार सपत्नीक मिले। 'ये मेरी सिस्टर हैं...', चेहरे पर शरारती मुस्कान लाते हुए पूरन ने जैसे भूल सुधार की, 'सारी.. वाइफ हैं।'
और इसके बाद वही चिर-परिचित आसमां में सुराख कर देने वाला गगनभेदी ठहाका। पूरन का अंदाज यही था। उन्हें ठहाका मारने के लिये बस बहानों की जरूरत होती थी और इसके लिये वे हमेशा आखेट में रहते। बिंदल जनरल स्टोर्स में अड्‌डा मारते हुए या राजस्थान चाट भंडार में चाय सुड़कते हुए पूरन की आंखें मानों चारों ओर स्केन करती रहती थीं। कोई पसंदीदा पात्र मिल जाये तो उनके दिमाग का 'इनबिल्ट' कैमरा चालू हो जाता। बाद में यही रिकार्डिंग किसी नाटक में, किसी भूमिका को जीते हुए काम आती। नाटक 'अंधेर नगरी चौपट राजा' में 'ले, जात ले जात' वाला संवाद वे बिल्कुल अलग अंदाज में बोलते थे। बाद में उन्होंने बताया कि यह शैली उन्होंने एक फेरीवाले से उड़ाई है।
उनके साथ जब शिमला जाने का मौका मिला तो वे अपने साथ एक जोड़ी नकली दांत ले गये थे। शिमला के माल रोड में दो दिनों तक उनका लाइव शो चलता रहा। रेडीमेड वस्त्रों की एक दुकान में पूरन ने 'निपट देहाती' का भेस धर लिया और 'मॉडल-सुंदरियों' का अजीब-सा मुआइना चालू कर दिया। दुकानदार और बाकी ग्राहक इस 'देहाती' पर हंस रहे थे पर पूरन अपने काम में तल्लीन थे। बाद में हमारे ठहाकों से भेद खुला तो बेचारा दुकानदार झेंपकर रह गया। बंगलौर और ऊटी में पूरन ने 'प्राइवेट डिटेक्टिव' का बाना धरा था। मुंबई में वे बेवड़े की भूमिका में उतर आए बाकायदा सड़क पर सो गये।
एक वाकया वे बहुत रस लेकर सुनाते थे। हिंदी सिनेमा के स्वर्णिम दिनों में उनके एक मित्र अपनी माताजी के साथ सिनेमा देखने जाते थे। एक फिल्म में प्रेम चोपड़ा साहब थे। जैसे ही उनकी एंट्री हुई, उनकी चिर-परिचित खलनायकी भी चालू हो गयी। माताजी ने चिढ़ते हुए कहा- 'ये रोगहा ला काबर लेत होही, कभू बने काम नइ करे (इस दुष्ट को भला क्यों लेते होंगे, कभी अच्छा काम नहीं करता)....।' और इसके बाद ठहाके के साथ पूरन ने बताया कि बाद में कभी भी मित्रवर माताजी के साथ सिनेमा देखने नहीं गये।
90 के दशक के पूर्वार्द्ध में जब 'जनता पागल हो गयी है' नाटक खेला गया तब नयी आर्थिक नीतियों के बहाने भारत का अमेरिका प्रेम पागलपन की हद तक उमड़ रहा था। पागल की भूमिका में पूरन की कास्ट्‌यूम डिजाइन मैंने की और उनकी फटी हुई बनियान में लिखा 'आई लव यूएसए'। दूसरे दिन जब नाटक खेला जाना था तब पूरन पागल का मेकअप घर से ही करके आए। रास्ते में इस 'पागल' के पीछे काफी लोग लग चुके थे। गोलबाजार में नाटक से पहले जब यह 'पागल' चाय पीने पहुंचा तो चायवाले ने चाय देने से साफ इंकार कर दिया। जब पूरन ने जेब से पर्स निकाला तो उसका संदेह यकीन में बदल गया कि यह मामूली नहीं बल्कि 'खतरनाक पागल' है। असल जिंदगी में नाटक के पूरन के ऐसे कितने ही किस्से हैं। फुर्सत से याद करें तो कलेजे में हूक-सी उठती है।
पूरन का हास्यबोध उनके गंभीर अध्ययन व बारीक ऑब्जर्वेशन का नतीजा था। इसी बारीक ऑब्जर्वेशन के कारण वे 'बुड़ान' जैसी कहानी लिख पाये, जिसे रमाकांत स्मृति पुरस्कार हासिल हुआ और जिसके बारे में डा. नामवर सिंह ने कहा कि 'पूरन डूबे हुए गांव को जिंदा कर देते हैं।' लेकिन वे लेखक नहीं थे, क्योंकि उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम साहित्य नहीं बल्कि रंगमंच था। वे नाटकों को ओढ़ते-बिछाते थे। जब उनका विवाह तय हुआ तो उन्होंने अपनी आमंत्रण पत्रिका में अपना ही कार्टून छपवाया - खूंटे से बंधते हुए। जब बेटी हुई तो उसका नाम रखा 'एकांकी'। बेटे का नाम रखा 'नित्यांक'। घर बनने से पहले ही वे चले गये, वरना घर का नाम 'रंगाश्रम' होता।
यह उनकी सनक नहीं थी। नाटकों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता थी, जो मार्क्सवाद के गहन अध्ययन और ट्रेड यूनियन आंदोलन में सक्रिय भागीदारी से परिमार्जित थी। 'इप्टा' से जुड़ने से ठीक पहले, अपनी पहली ही मुलाकात में उन्होंने मुझसे पूछा था- 'यहां कोई थियेटर ग्रुप है क्या?' थियेटर के प्रति उनका यह प्रेम पागलपन की हद तक था। लेकिन वे मूलतः अभिनेता थे, निर्देशक नहीं। नाटक के लेखक भी नहीं जो अपनी मर्जी से अभिनेता की 'एंट्री' और 'एग्जिट' तय करता है। नियति ने पता नहीं कैसा ड्रामा लिखा कि उनकी 'री-एंट्री' नहीं हो पायी। आइंदा होगी भी नहीं। कॉमिक रोल पसंद करने वाले अभिनेता को इस तरह ट्रेजिडी वाली भूमिका मिलने का अफसोस हमें हमेशा सालता रहेगा।
लेकिन ट्रेजिडी ने उनका पीछा मरने के बाद भी नहीं छोड़ा। 2005  की बात है। इस बरस का नाट्‌योत्सव हमने उनकी स्मृतियों को समर्पित किया था। जगह छोटी है। रंगमंच नहीं है। सभागार से लेकर मंच तक सब कुछ अस्थायी तौर पर बनाना पड़ता है और यह सब होता है बहुत छोटे-छोटे चंदों के सहारे। कोई प्रायोजक नहीं, कोई अनुदान नहीं, केवल मेहनतकश जनता का पैसा। मंच तैयार था।
भिलाई की 'इप्टा' टीम द्वारा नाटक 'राई' का मंचन किया जाना था। इसमें एक लॉक-अप का दृश्य है, जिसमें पुलिसिया पिटाई का एक बेहतरीन नमूना पेश किया जाता है। सेट बनाने में काफी तामझाम करना पड़ता है और भिलाई इप्टा के साथियों ने कोई घंटे भर की मशक्कत के साथ अपना 'थाना' तैयार कर लिया था। पूरन पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म दिखाई जानी थी, लिहाजा परदा व प्रोजेक्टर भी तैयार था। महेश ने ठोक-बजाकर, मंच के हरेक कोने में जाकर अपने साउंड सिस्टम की आवाज की जांच कर ली थी। शरीफ अहमद हमेशा की तरह अपने लाइट इफेक्ट्‌स के साथ तैयार थे। मैदान में धूल उड़ने से रोकने के लिये पानी के छींटे मार दिये गये थे और उस पर कुर्सियां भी बिछ गयी थीं। अब इंतजार सिर्फ दर्शकों का था। 
'राई' नाटक यहां पहले भी खेला जा चुका था और केवल लोगों की विशेष फर्माइश के कारण इसे दोबारा बुलाया गया था, इसलिए भारी मात्रा में भीड़ जुटने की संभावना थी। इस बार कुर्सियों की संख्या 600 से बढ़कर 800 कर दी गयी थी पर शाम के आठ बजते-बजते भी जब कोई नहीं आया तो तो माथा ठनकने लगा।
पता नहीं वो कौन-सी मनहूस घड़ी थी जब लगभग बदहवासी की अवस्था में अविनाश ने आकर बताया कि 'भागी हुई लड़कियों वाले मामले में बवाल हो गया है, शहर में कर्फ्यू लग गया है.....।' मैं जैसे आसमां से जमीन पर गिरा। अविनाश के इन अनमोल वचनों को सुनकर न तो मुझे आलोक धन्वा की याद आयी न विभूति नारायण राय की। मुझे याद आये उन हजारों लोगों के चेहरे जिनसे हमने चंदा वसूला था और जिनके लिये अब हमें दोबारा -बगैर चंदे के -इस नाट्‌योत्सव को पूरा करने की जिम्मेदारी आ पड़ी थी। दरअसल शहर में पिछले दिनों एक खास समुदाय की दो लड़कियां किसी दूसरें समुदाय के लड़कों के साथ भाग गयी थीं और थोड़ा-बहुत तनाव नगर में चल ही रहा था, पर कर्फ्यू की आशंका किसी को नहीं थी।
भिलाई के साथी अपना थाना-कचहरी खोलने में व्यस्त हो गये- उन्हें आम रास्ता छोड़कर रेल की पटरियों के रास्ते विदा किया गया। महेश के माइक की आवाज गुम हो गयी थी और शरीफ की बत्तियों में रोशनी नहीं थी। मतीन अहमद अपनी टीम के साथ कुर्सियां समेटने में लग गये। खाली पंडाल में सिर्फ मैं- किंकर्तव्यविमूढ़ - माथे पर हाथ रखकर चुपचाप बैठा था और सबसे बचते-बचाते पूरन ने एंट्री मारी, कहा, 'क्या बात है कामरेड, लगता है आपकी बेटियां भाग गयीं हैं?'


दिनेश चौधरी - लेखक, रंगकर्मी और सोशल एक्टिविस्ट व इप्‍टा, डोगरगढ़ के अध्‍यक्ष भी हैं. उनसे iptadgg@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें