रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

विश्व रंगमंच दिवस 2014 पर दो बातें - आशुतोष चन्दन

आप सबको विश्व रंगमंच दिवस की एक दिन बाद भी बधाई.... लेकिन एक बात बताइये, ये ख़ालिस बधाई-बधावे ले-देकर क्या कर लेंगे हम लोग... अब बधाइयों का ( और फेसबुक पर लाइक्स का ) अचार भी तो नहीं डाला जा सकता है न । मेरा मज़ाक़ करने का फिलहाल इरादा नहीं है । मैं जो बात कहना चाहता हूँ वो ये कि आज रंगमंच को दिवस, महोत्सवों के ऐय्याश माहौल से निकालने की ज़रूरत है । इसके लिए रंगकर्मियों और निश्चित रूप से रंग-समीक्षकों को भी कई स्तरों पर पहल करनी होगी । हमें रंगमंच को लोगों के बीच ले जाने की ज़रूरत है । यहाँ 'लोगों' से मेरा मतलब दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम जैसे भव्य ऑडिटोरियम में वीआईपी पास खोंसे या महज़ अपना कलाप्रेम दर्शाने के लिए महँगे टिकट ख़रीदकर कुर्सियों में धँसे उन लोगों से बिलकुल नहीं है जो चलते नाटक के बीच भी मार्केटिंग, शेयर्स और मिसेज फलाँ की फलाँ बात और दुनिया जहान की बकैती कर रहे होते हैं । लोगों से मेरा मतलब उन लोगों से हैं जिनसे दुनिया की तमाम कलाओं को कच्चा माल मिलता है और उन लोगों से भी जो अपनी तनख्वाह, अपनी जेब-ख़र्च का एक हिस्सा ख़र्च कर पूरी गंभीरता और पूरे मन से नाटक देखने आते हैं । साथ ही मेरा मतलब उन लोगों से भी है जो चाहकर भी ज़िंदगी की चाकी में से रास्ता निकाल कर रंगमंच तक पहुँच नहीं पाते । दूसरी तरफ अभी भी देश के हर हिस्से में ऐसे इलाके भी हैं जहाँ रंगमंच से मतलब नाच या ऑर्केस्ट्रा से ही लिया जाता है । सीधे शब्दों में कहें तो रंगमंच जैसी कोई चीज़ वहाँ नहीं है । ऐसे में, मैं दिल्ली में नाटक करूंगा, आप मुंबई में करेंगे, कुछ लोग श्रद्धानुसार सीधे विदेश निकल लेंगे तो उन जगहों पर नाटक करने के लिए रंगकर्मी क्या विदेश से आयात किए जायंगे या सीधे आसमान से टपकेंगे ? और ऐसे में ' रंगमच के गंभीर दर्शक नहीं हैं ' का रोना भी रोया जाता है । अपने दर्शक में रंगमंच की समझ पैदा करने की ज़िम्मेदारी क्या हमारी- आपकी नहीं है ?  बेहतर संस्थानों से प्रशिक्षण लेना और उसका अभ्यास करना तो ज़रूरी है पर लोटे में रखा पानी रखे-रखे सड़ ही जाता है चाहे वो सोने के लोटे में ही क्यों न रखा गया हो । अपनी समझ और अनुभव के पानी को दुनिया के समंदर में खुला छोडना पड़ेगा । तभी समंदर की भी रंगत बदलेगी और धारा की भी जीवंतता बनी रहेगी ।
दूसरा और एक बहुत बड़ा और अहम सवाल ये कि रंगकर्मी क्या जगत के कल्याण के लिए पैदा होता है और निस्वार्थ भाव से अपनी और परिवार की ज़िंदगी की गाड़ी खींचते-खींचते एक दिन हाँफते-हाँफते मर जाना उसके जीवन का ध्येय होना चाहिए ? क्या एक कलाकार को जीविका और एक बेहतर जीवन पाने का अधिकार नहीं होता ? दुनिया की आँखों में सपने रोपने की कोशिश करने वालों को सपने देखने का कोई हक़ क्यों नहीं भाई ? क्या एक रंगकर्मी को गंगाजल से आचमन कर नाट्यशास्त्र से लेकर दुनियाभर के तमाम शास्त्रों का पाठ करते हुए 'कला-कला' करते हुए या आमजन के बीच रंगमंच को मिशन की तरह बरतते हुए मर जाना चाहिए । या आजकल के नए दौर में दोनों का कॉकटेल बनाकर पैसा और क्रांतिकारी का तमगा, दोनों लूटना चाहिए ?  रंगकर्म को जीविका के रूप में लेना 21वीं सदी में भी क्यों संभव नहीं हो पा रहा है ? डॉक्टर, ऑफिसर, बिजनेसमेन, प्रोफेसर अपना पेशा भी करते हैं और कला-संस्कृति के क्षेत्र में अपना योगदान भी दे पाते हैं और एक रंगकर्मी ? रंगकर्म को मिशन के साथ ही साथ पेशे के तौर लेना आज भी संभव नहीं हो पाया है । कला-संस्कृति की अवधारणाओं से न पेट भरता है, न तन पर कपड़े और सर पर छत आती है और न ही बच्चों की फीस से लेकर परिवार की तमाम ज़रूरतें पूरी हो सकती हैं । अगर ऐसा हो पाता तो दुनिया के तमाम ग्रंथअबतक चूल्हे में लग चुके होते । आज भारत में रंगमंच और रंगकर्मियों की सबसे बड़ी चुनौती जीविका को लेकर है । वो कौन सा मॉडल हो कि रंगमंच अपने सामाजिक दायित्व के साथ ही साथ जीविका का भी माध्यम बन सके । मैं अकेले कोई उपाय सोच नहीं पा रहा इसलिए  रंगमंच दिवस के अगले दिन मैं आप सबको एक दूसरे का साथ देने के लिए आमंत्रित कर रहा हूँ । आइये साथ मिलकर कोशिश करें कि आने वाले किसी विश्व रंगमंच दिवस पर हम रंगमंच और दुनिया के सभी रंगकर्मियों को इन चुनौतियों से जीता हुआ और बहुत आगे पाएँ । 
आशुतोष चन्दन के फेसबुक वाल से साभार. उनसे यहाँ संपर्क किया जा सकता है.

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