रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

रविवार, 30 नवंबर 2014

शिवरात्रि और नाटक – संजय कुमार

बिहार के गांवों-कस्बों में उत्सवों के अवसर पर नाटकों को मंचित करने की अपनी एक अनूठी और रोचक परम्परा रही है। तमाम उतार चढाओं के बीच यह परम्परा आज भी कायम है। संजय कुमार का यह आलेख उसी नाट्य परम्परा की एक झलक पेश करती है। इस आलेख के केन्द्र में हैं फुलवरिया (भागलपुर) नामक गांव। मंडली पर यह आलेख संजय कुमार के फेसबुक वाल से साभार। लेखक से संपर्क करने के लिए यहाँ क्लिक करें। – माडरेटर मंडली   
शुरु में ही कुछ क्षमायाचनाएं1. ये नितांत निजी अनुभव हैं थोड़ा -बहुत अतीत को जीने का अनिर्वचनीय सुख, थोड़ा मनोरंजन -इनमें किन्हीं बौद्धिक अथवा दार्शनिक प्रमेयों की कोई जगह नहीं। 2. स्मृति क्षीण होने और समय के अंतराल के कारण संभव है नामों और कालक्रम में कुछ उलट पलट हो गयी हो। जो मित्र परिजन इन घटनाओं / प्रसंगों के गवाह रहे हैं उनसे क्षमा की अपेक्षा और सुधार का अनुरोध है। 3. वे जो इब्सन, ब्रेख्त, बर्नार्ड शॉ, मोहन राकेश, गिरीश कार्नाड, इब्राहिम अल्काजी आदि की ऊंची दुनिया के वासी हैं, उनसे इस हाट पुरैनी टाइप माल के लिए क्षमायाचना। 4. वे जो नुक्कड़ नाटकों आदि के जरिये क्रांति की जनवादी मशाल जला रहे हैं, उनसे भी इन प्रतिगामी संस्मरणों के लिए माफ़ी मांगता हूँ। 5. किस्त किंचित् लम्बी हो गयी है। उसकी भी माफी।
भाग 1 - हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित करीब सौ -सवा सौ साल पुराने शिवमंदिर- जिसे उनमें से एक शंभुनाथ पांडेय के नाम पर शंभुनाथ महादेव कहा जाता है - और भंग के प्रति समस्त ग्रामीणों का अखंड अनुराग देख कर , यह तो लगभग पक्का ही माना जा सकता है कि हमारे पूर्वपुरुष शैव रहे होंगे। यद्यपि आहार के मामले में मोटे तौर पर गाँव का आचरण वैष्णव ही रहा है। आज भी किसी भी पर्व त्योहार में अथवा भोज भात में मांसाहार सर्वथा वर्जित ही है। बलि देने की भी परंपरा कभी नहीं रही। याद पडता है कि पहले दशहरे में दुर्गाथान में पीपल वा बड के पेड़ पर कागज की कन्दीलें लटकाया करते थे जिसके बारे में किसी ने बताया था कि वह बलि के पशु का प्रतीक है। आज तो खैर मांसाहार सर्वव्यापी है और भंग बेचारी भी दारू के सामने पनाह मांगने लगी है। पर मांसाहार और भंग की कथाएँ फिर कभी।
आज शिव और शिवरात्रि और शिवरात्रि के अवसर पर होने वाले नाटक। तो शिव हमारे गांव के अधिपति देव हैं। ग्राम देवता का स्थान उनके ही एक प्रतिरूप भैंरो बाबा को प्राप्त है। गांव में काली का भी एक मंदिर है जो ब्राह्मणेत्तर जातियों की बस्ती के बीचोंबीच है और उन्हीं में ज्यादा लोकप्रिय भी है। भैरों बाबा का मंदिर - जो शिव मंदिर के आहाते में ही है -पहले मिट्टी के एक घर में था। मिट्टी का ही बना हुआ एक विशाल चबूतरा सा था जिसके मध्य में मिट्टी के ही महादेव (माधो नहीं) अर्थात लिंग। चबूतरे पर महिलाएं जल अर्पित करतीं सो वह स्थायी तौर पर गीला ही रहता, मानो ताजे कीचड़ से बना कोई सद्यजात पिंड हो।
भैरों या भैरव मंदिर के बगल में प्रागैतिहासिक काल की बनी दो चार खंडहरनुमा कोठरियां थीं, दूसरे कोने में एक कुआं और मंदिर के चारो और निसुआड की झाड़ियों की बाड़। आज बाड़ की जगह पक्की चहारदीवारी है, भैरव का छोटा सा मंदिर भी पक्के का है और कोठरियों की जगह समतल हो गयी है। कुंआ अलबत्ता जीवित है।70 के दशक में बना एक कोठरीनुमा हनुमान मंदिर भी है।
तो इसी प्रांगण में शिवरात्रि का मेला लगता था। शिवरात्रि तो हमारे लिए महापर्व था और रहेगा पर उस मेले को महामेला कहने में संकोच हो रहा है। कोई सौ पचास लोग जुटते होंगे - अधिकांश बच्चे। खाने पीने की चीजों /दुकानों के नाम पर लडुआ /लाई और पकौड़ी -फुलौरी के दो एक खोमचे, शीशे के चौकोर बक्से में रखी हवा मिठाई बेचते एक चश्मीश बूढ़े बाबा और गुड या चीनी के (रंगीन) लट्ठे बेचने वाले एकाध बंदे जो इन लट्ठों को बडे कौशल से मिनट भर में साइकल, हथपंखे या झंडे का रूप दे देते। खिलौनों की बात करें तो एक दो गुब्बारे और बांसुरी / तुतरू बेचने वाले, शायद लडकियों के लिए फीते, कंधी, शीशे आदि बेचने वाला एक बंदा।
मंदिर की हर साल रंगाई पुताई होती थी - आज भी होती है। उसके उत्तुंग धवल शिखर पर ध्वजा लेकर चढता हुआ कोई युवक और नीचे बज रही डुगडुगी नगाड़े और तुरही का समवेत पार्श्वसंगीत - एक रोमांचक अनुभव होता था।
शिव की पूजा संध्या काफी देर से, स्नान ध्यान और शाम की भंग छन जाने के बाद शुरू होती थी और देर रात तक चलती थी। इस बीच जनता को पूर्व फागुन की कडकडाती ठंड में इस निशापूजा की समाप्ति तक रोके रखने के लिए किसी न किसी प्रकार के सांस्कृतिक आयोजन की परंपरा हर गांव में होती है। हमारे यहाँ सन 47-48 में शिवरात्रि के अवसर पर नाटक खेलने की परंपरा का सूत्रपात हुआ।
इसके पीछे मुख्य अभिप्रेरणा मेरे पिता की रही होगी। वे एक समर्पित सिनेमची थे। मूक फिल्मों के उस जमाने से रुपहले पर्दे के आशिक थे जबकि भले घर के बच्चों का सिनेमा देखना एक घोर अनैतिक कर्म माना जाता था। पर उनका सिनेमा प्रेम और उनसे जुड़े हमारे अनुभवों का प्रसंग अलग है और उसकी चर्चा अलग से। यहां तो इतना ही कि पृथ्वीराज कपूर - सोहराब मोदी अभिनीत सिकंदर 40 के दशक में उनकी पसंदीदा फिल्मों में एक थी और उस चित्र में दिखे पृथ्वीराज कपूर के मर्दाना सौंदर्य के वे दीवाने थे। बाद में जब पृथ्वीराज अपना पृथ्वी थियेटर लेकर भागलपुर आये तो उन्हें साक्षात देख कर यह दीवानगी और बढी - नाटक का नाम शायद पठान था। पृथ्वीराज संभवतः दंगापीडितों के लिए या किसी और सार्वजनिक कार्य के लिए चंदा इकट्ठा कर रहे थे इसलिए शो खत्म होने के बाद मुंह को गमछे से ढंके एक दूसरा गमछा फैलाये, सर झुकाए निकास द्वार पर खडे रहते और लोग जी खोल कर दान देते।इस अदा से पृथ्वीराज जी की प्रभा कुछ और निखरी। पिताजी पारसी थियेटरों के भी उत्साही दर्शक थे और आगा हश्र कश्मीरी के बडे प्रशंसक।
पिताजी (जिन्हें हम सभी और प्रायः सारा गाँव ही बाबा कहता था) में नेतृत्व की क्षमता नैसर्गिक थी। अपने मित्रों /शिष्यों के साथ मिलकर नये राष्ट्र के निर्माण की प्रेरणाओं से अभिभूत होकर उन्होंने देश को आजादी मिलने के साथ ही, 1947 में, नवयुग संघ और नवयुग पुस्तकालय की स्थापना की थी। गांव के सारे युवक सुबह शाम नियम पूर्वक संघ में इकट्ठा होते। शुरु शुरू में तो शायद बाकायदा ड्रिल-विल भी होती थी, देशभक्ति के गाने गाए जाते।
बाबा को पढ़ने का शौक जुनून की हद तक था। देवकांता संतति और वेदप्रकाश कम्बोज से लेकर इलाचन्द्र जोशी और भगवतीचरण वर्मा तथा मनोहर कहानियाँ और इंद्रजाल कॉमिक्स से लेकर दिनमान और इलस्ट्रेटेड वीकली तक सभी कुछ पढते। उन्होंने अपने संग्रह का अधिकांश नवयुग पुस्तकालय को दे दिया था। इस संग्रह के एक छोटे हिस्से को ही स्तरीय साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है, अधिकतर जेबी जासूस, इब्ने सफी बी ए और भारत के शूरवीरों की गाथा जैसी सामग्री ही थी। एक अखबार और गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण के अंक भी नियमित आते। इस पुस्तकालय ने गांव के युवाओं को साहित्य और कला के कोई सघन संस्कार दे दिये हों ऐसा तो प्रत्यक्षतः नहीं हुआ, पर लिखे शब्दों की खिड़की से बृहत्तर संसार को जानने का एक अवसर और उसके प्रति अभिरुचि का एक वातावरण अवश्य तैयार किया। मैने उस दौर को नौजवान पीढ़ी के कई सदस्यों - यथा रेबती भाई, अशोक भाई , सुबोल
भाई आदि को इस देन के प्रति बडा कृतज्ञ अनुराग रखते देखा है। पिताजी उर्फ बाबा को भी उस पीढ़ी के जीवन में अपने परोक्ष योगदान के लिए एक स्नेहपूर्ण गौरव था।यह पुस्तकालय करीब 40 वर्षों तक हमारे घर की बाहरी कोठरी में रहा। जब बाबा रिटायर होकर घर लौटे और हमें उस कोठरी की जरूरत हुई तो पुस्तकालय को स्कूल की एक कोठरी में ले जाया गया। वहां धीरे धीरे देखभाल के अभाव में सारी पुस्तकें दीमकों की भेंट चढ़ गयीं और पुस्तकालय स्मृतिशेष हो गया। हां, नवयुग संध किसी न किसी रूप में जीवित रहा। संघ द्वारा समय समय पर अनेक बर्तन भी खरीदे गये थे जो लोगों को शादी ब्याह में मुफ्त या फिर कुछ मामूली प्रतीकात्मक चंदे पर दिये जाते। शायद यह सिलसिला आज भी जारी है और आज भी शायद सामुहिक आयोजनो की पहचान नवयुग संघ से ही होती है।
अस्तु। इस क्षेपक के बाद फिर से नाटक पर लौटा जाये। तो पहला नाटक खेला गया सन 47 -48 के आस पास। अनुमान लगाना कठिन नहीं कि नाटक का नाम था 'सिकंदर'। बाबा ने निर्देशन भी किया और संभवतः अपने 6 फुट से निकलते कद के कारण और या फिर स्वयं निर्देशक होने के कारण, सिकंदर का अभिनय भी। पोरस बने थे उनके मित्र बलराम पांडेय जो हमारे चचेरे भाई भी थे और हमारे ममेरे बहनोई भी, और खुद भी काफी लहीम शहीम थे। यह नाटक निश्चय ही अपने निर्माण मूल्यों में काफी भव्य रहा होगा क्योंकि उसके लिए जुटाया गया साजोसामान अगले चार-एक दशक तक होने वाले नाटकों में काम आता रहा और तब भी हम उसका वैविध्य देख कर चमत्कृत हो जाते थे - तरह तरह की तलवारें, भाले, धनुष-बाण आदि शस्त्रास्त्र , रथों के ढांचे, यूनानी शैली के शिरस्त्राण और वस्त्राभूषण आदि।
इस नाटक से जुड़ी दो बातों का जिक्र बाबा करते थे। उन दिनों बाबा के रवीन्द्र नाथ टैगोर नुमा दाढ़ी थी। रिहर्सल के दौरान सभी, विशेषकर वे जिन्होंने सिकंदर फिल्म देख रखी थी, इस बार पर घनघोर आपत्ति / आश्चर्य कर रहे थे कि भला सिकंदर के दाढ़ी कैसे हो सकती है। पर नाटक के प्रणेता / निर्देशक के आगे किसी की चल नहीं रही थी। जब एन शिवरात्रि के दिन बाबा दाढ़ी सफाचट कराये दफ्तर से लौटे तो मंडली ने राहत की सांस ली। एकबारगी तो खुद मेरे भ्राता जयप्रकाश (दादामणी) उन्हें नहीं पहचान पाये।
दूसरी एक मजेदार घटना नाटक के क्लाइमैक्स में जब पोरस से युद्ध के पश्चात सिकंदर की सेना भारतवर्ष में आगे बढ़ने से इनकार कर देती है। जो कलाकार विद्रोही सेनानायक की भूमिका कर रहा था, एन वक्त पर अभिनय के जोश में किंवा भंग की तरंग में उसने ''हम आगे बढ़ेंगे" का नारा बलंद कर दिया। मंच पर भारी संभ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गयी। पर इससे कबल कि दर्शक समुदाय ठीक ठीक कुछ समझ पाता, संभवतः सेल्यूकस की भुमिका कर रहे केशव भाई ने प्रत्युतपन्नमति का परिचय देते हुए उस कलाकार की गर्दन दबोची और "दूर हटाओ इस गुस्ताख को हमारी नजरों से " कहते हुए उसे नेपथ्य में ढकेल दिया। उस हतभाग्य को तो सहसा समझ ही नहीं आया कि उसकी राजभक्ति का ऐसा निरादर और तिरस्कार क्यों हो रहा है।
सिकंदर की सफलता के बाद नाटकों की परंपरा चल निकली। सीमित संसाधनों और पुरानी तकनीकों के बावजूद प्रस्तुतिकरण में नये नये प्रयोग किए जाते। कभी साडियों को मंच के फर्श पर बिछा, उनके हिलने से बहती नदी या हिलोरें लेते सागर का आभास दिया जाता। कभी गत्ते का एक विराट कमल बनाया जाता जो पटाखे की ध्वनि के साथ प्रस्फुटित होता तो अंदर कमला पर आसीन ब्रह्मा जी प्रकट होते (जिस नाटक विशेष की यहां चर्चा हो रही है उसमें ब्रह्मा का अभिनय शायद लड्डू भाई ने किया था)।एक दूसरे नाटक में जिसमें नायक - वाल्मीकि - की भूमिका शायद बाबा ने की थी , मंच पर बाजाब्ता दो बैलों की जोड़ी ले आयी गई थी। उस दौर के खेले गये नाटकों में कृष्णार्जुन युद्ध और जयद्रथ वध आदि की चर्चा मैने सुनी है।शायद एक सामाजिक नाटक भाई भाई भी खेला गया था - इसी नाम का पर एक अलग कथावस्तु वाला नाटक बाद में हमारे जमाने में भी खेला गया - उसकी चर्चा आगे। बाद के दौर में शायद टीपू सुल्तान और सुल्ताना डाकू का भी मंचन हुआ था।
इन्हीं में से किसी एक नाटक के एक मजेदार प्रसंग की चर्चा बाबा करते थे। बाबा के हमनाम और रिश्ते में हमारे एक चचेरे भाई थे नोरेन भाई - अर्थात नरेंद्र पाण्डेय जो खुद भी स्टेट बैंक में ही एक अधिकारी थे। नाटक में कोई भी छोटा मोटा रोल करने की उन्हें बडी हसरत थी। दो चार बरस तक लगातार प्रयास के बाद निर्देशक उर्फ बाबा ने उन्हें किसी नाटक में शिव का पाठ दिया। छोटा सा रोल, एकाध डायलॉग बोलने थे , वह भी एन आखिरी दृश्य में। समस्या यह थी कि बाबा खुद अभिनय भी कर रहे थे, निर्देशन भी, मेकअप भी और प्राम्पटिंग भी। नतीजतन अन्य पात्रों की तरह नोरेन भाई का मेकअप भी नाटक शुरु होने के पूर्व ही कर दिया गया। नंगा बदन, शरीर पर एक नकली बघछाल और भभूत के सिवा कुछ नहीं, सर पर जटाजूट और गले में प्लास्टिक का एक सर्प। उपर से माघ-फागुन की कनकनाती सर्दी।
हमारे गांव में हरेक पर्व-त्योहार में अबालवृद्ध भंग सेवन की परंपरा रही है। फिर भंगेडियों के इष्टदेव शिव की शादी का अवसर। मंच के सामने, मंच के उपर और मंच के पीछे विराजमान सभी नागरिक इस दिन अतिरिक्त उल्लास से भंग का सेवन करते थे। नोरेन भाई की अभिनय यात्रा का यह शुभारंभ था और स्वाभाविक रूप से वे किंचित नरभसाये हूए थे सो यथोचित मात्रा में भंग का सेवन तो उनका विशेष अधिकार था। पर फरवरी की कडकडाती ठंढ के आगे न कम्बल काम कर रहा था न भंग का कवच न चाय की अनगिनत प्यालियां।
खैर जैसे तैसे रात बीती और वह शुभ घड़ी आयी कि जिसका इंतजार था - नाटक का आखिरी सीन। नोरेन भाई मंचासीन हुए। पीछे गत्ते पर सफेदी पोत कर बनाया गया कैलाश पर्वत। बगल में पार्वती। शंकर समाधि में। वीरभद्र टाइप किसी गण को आकर कहना था कि दुर्वासा ऋषि पधारे हैं और शंकर को कहना था - उन्हें ससम्मान यहां लाओ।
पर अभिनय की उत्तेजना और घबराहट तथा भंग के उत्तरोत्तर प्रगाढ़ होते गए नशे का ऐसा मिलाजुला असर हुआ कि शंकर बने नोरेन भाई को सचमुच की समाधि लग गई। गण ने तो अपना डायलॉग बोल दिया पर शंकर चुप। गण किंचित् घबराया पर फिर से उसने दुर्वासा के आने की अप्रिय घोषणा की। शंकर फिर भी मौन।
प्राम्पटर (बाबा) ने दबे स्वर में प्राम्पट किया :: शंकर (अर्थात शंकर बोलेंगे) :: उन्हें ससम्मान यहां लाओ। शंकर पर कोई असर नहीं पड़ा। अबतक दर्शकों में सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। बाबा ने एक बार थोडे़ तीखे स्वर में फिर प्राम्पट किया। शंकर यथावत् मौन। दर्शकों में अब हंसी के फुहारे छूटने लगे थे और बाबा के धैर्य का बांध टूट चला था। वे क्रोध में जोर से बोले, इतनी जोर से कि आखिरी पंक्ति में बैठे दर्शकों तक भी साफ आवाज गयी :: शंकर ! इस तीखे स्वराघात से अकस्मात् नोरेन भाई की तंद्रा टूटी और घबरा कर खडे हो वे चिल्लाने लगे :: शंकर ! शंकर ! शंकर ! शंकर ! शंकर ! लोग लोटपोट हुए और नाटक का वहीँ पटाक्षेप हो गया।
भाग 2 - हमारे यहाँ नाटकों के साथ खेलना शब्द का प्रयोग करते हैं। सचमुच ही यह आयोजन मनोरंजन के किसी गंभीर प्रयास की बजाय ज्यादातर एक खेल ही होता था जिसमे सारे गाँव की एक उल्लासपूर्ण सहभागिता होती थी।दरअसल आयोजन मात्र का थ्रिल ही मूल प्रेरणाशक्ति थी। समाजसुधार या फिर मनोरंजन तक के अभिप्रेत भी गौण ही थे। लगभग समस्त दर्शक समुदाय - महिलाओं को छोड़कर - किसी न किसी रूप में नाटक के आयोजन से जुडा रहता , सभी को रिहर्सल देख देख कर कथावस्तु तो क्या, कथोपकथन - डायलाग - भी पहले से ही ज्ञात रहता। हमारे धर की महिलाओं की स्थिति थोड़ी भिन्न थी।क्योंकि लगभग महीने भर चलने वाले रिहर्सल हमारे दरवाजे पर ही होते तो उन्हें भी इन्हें देखने का पूरा पूरा मौका मिलता। मेरी बहनें - दीदीमणी, फूलदीदी और टूलू, मेरी भगनियां स्वीटी और पिंकी तथा मेरी पत्नी भवानी इसकी गवाह रही हैं। भवानी के लिए , एक तो कस्बाई और दूसरे बंगाली परिवेश से आने के कारण यह पूरा का पूरा गंवई , घनघोर दकियानूसी / सामंती माहौल ही एक अजूबा सा था।
पारंपरिक नाटकों में प्रस्तुतिकरण की आत्मा मंचसज्जा में होती है। हमारे यहाँ तो संसाधनों की कमी की वजह से मंच का निर्माण ही अपने आप में चुनौती होती। अलग अलग घरों से अलग अलग रूपाकारों की चौकियों को जुटाना , उनके नीचे ईंटें वगैरह लगा कर एक मंच का एक समतल फर्श बनाना, उन्हें मजबूती से बांधना ताकि अनचाहे ही मंच पर भूकम्प का दृश्य न समुपस्थित हो जाए। चारो ओर बांसों की एक जटिल सी श्रृंखला खडी करना जिनपर अलग अलग परदे - ड्राप सीन (मुख्य परदा) , यवनिका आदि - बांधे जाते। चुंकि भारी परदों को पुल्लियों के सहारे उठाना गिराना एक तकनीकी मामला था, इस कार्रवाई में अनुभवी लोगों की आवश्यकता होती थी - सीताराम भाई, नरेश मामा , रेवती भाई , कैलाश भाई जैसे पुरोधा इस अवसर पर मजदूरों और स्वयंसेवकों का मार्गदर्शन करते। इन उद्यमों में दो चार मजदूरों के अलावा प्रायः स्वयंसेवक ही होते थे। मैंने जिन मजदूरों को इस उद्यम में देखा है, उनमें डीगो का नाम मुझे विशेष तौर पर याद है, पर उनकी उपकथा कभी और।
परदे मंचसज्जा के सबसे महत्वपूर्ण कारक होते थे। इनमें मुख्य होता था ड्राप सीन जो नाटक की कथावस्तु के लिए एक प्रवाहसूत्र का काम करता था और इस कारण उसे - यवनिका के बाद - सबसे आगे लगाया जाता ताकि जरूरत के हिसाब से पीछे के पर्दे गिरा कर दृश्य परिवर्तन किया जा सके। उसपर प्रायः नगर के एक राजमार्ग का दृश्य होता। बाकी पर्दों में से एक में एक महल का दृश्य जो राजा के प्रासाद से लेकर लाट साहब की बैठक तक हर तरह के इनडोर दृश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाता था। एक होता था जंगल 'सीन' जिसमें झरने, अस्ताचल-गामी सूरज, नौका आदि का चित्रण होता था। यह पुष्पवाटिका टाइप प्रेमप्रसंगों और युद्धों -दोनों की पृष्ठभूमि के लिए मुफीद होता था।चित्रों का स्तर लगभग घटिया ही होता और उनमें पर्सपेक्टिव / परिप्रेक्ष्य का सर्वथा अभाव होता जो भारतीय चित्रणशैली का - चाहे मुगल मिनियेचर हों कि राजपूत वा कांगड़ा शैली - एक स्थायी दोष रहा है, गो बाज विद्वान उसे महिमामंडित भी करते रहे हैं। परदे / कॉस्ट्यूम आदि के पुराने हो जाने पर अगल बगल की नाटक मंडलियों से उधार लेने का भी रिवाज था।
अगली चुनौती होती थी अभिनेताओं का चयन। चुंकि नाटकों की शैली मूलतः पारसी थिएटरों वाली थी और कथावस्तु लगभग सौ फीसदी पौराणिक अथवा ऐतिहासिक, जोर अतिनाटकीय शारीरिक भंगिमा और जोरदार डायलॉगबाजी पर था न कि बारीक मुखमुद्राओं पर। मंच पर स्पेस को कवर करना अनिवार्य होता था अतः यदि मंच पर कम - दो या तीन - पात्र हों , तो उन्हें कहा जाता कि वे आपस में स्थान बदलते रहें ताकि गति का एहसास भी होता रहे और मंच भी भरा भरा लगे। बहुत जमाने तक माइक्रोफोन भी नहीं थे, तो जिस पात्र को भी बोलना था उससे यह अपेक्षा की जाती थी कि वह संवाद भरसक मंच के बिल्कुल सामने आकर और दर्शकों से मुखातिब होकर बोले, भले ही जिसे संबोधित किया जा रहा हो वह पात्र परदे के पास हो क्यों न खड़ा हो
नायक की भूमिका के लिए उपरोक्त नाटकीय शैली और तीखे नाक नक्श को वरीयता दी जाती। मैंने बाबा की सेवानिवृति के बाद ही गांव में दो चार साल बिताए थे। पर बाबा के बेतिया तबादले के बाद भी कई वर्षों तक नाटक की परंपरा जारी रही थी और एकाध बार गांव में शिवरात्रि गांव में बितायी और उसमें दो चार नाटक देखे। उन नाटकों में, जहाँ तक मेरी स्मृति है, मैंने सीताराम भाई या फिर बुद्धो भाई के पुत्र-परिजनों को ही नायकों की भूमिका में देखा था। दोनों ही परिवारों के पुरुष (और स्त्रियां भी) सौंदर्य के धनी थे।एकाधिक में जवाहर भाई उर्फ मुखिया जी , एकाध में गुलगुल भाई और लड्डू भाई। अन्य पात्रों के रूप में उत्साही स्वयंसेवकों को तरजीह दी जाती थी।
पर सबसे कठिन था स्त्री पात्रों का चयन। एकदम छोटी बच्चियों को छोड दें तो लडकियों का मंच पर जाना पूरी तरह निषिद्ध था। इस निषेध के कारण स्त्री पात्रों का अभिनय भी लड़कों को ही करना था। इसमें प्राथमिकता उन सुकोमल किशोरों को दी जाती जिनकी अभी मसें नहीं भींगी हों। जो जाबांज इस चुनौती को स्वीकार करते भी उनकी दूसरे लड़के खास कर वे जिन्हें कोई भी भूमिका नहीं मिली होती, बडी फजीहत करते। इस कठिनाई के कारण लगभग सौ फीसदी नाटक पौराणिक या ऐतिहासिक होते थे जिनमें स्त्री पात्रों की भूमिका प्रायः गौण ही होती थी (जहाँ तक मुझे याद है , हरेक नाटक के लेखक शायद एक ही थे -श्री चतुर्भुज, बी ए) इन विपरीत परिस्थितियों में भी कुछ कलाकार ऐसे थे जो स्त्रियों का अभिनय अत्यंत रुचि और गौरव से करते। इनमें प्रमुख थे गुलगुल भाई और कारू भाई। गुलगुल भाई को मैंने ' कुणाल' वा 'कुणाल की आंखें' नामक नाटक में तिष्यरक्षिता की भूमिका को बडे कौशल से निभाते देखा था। जहां तक कारू भाई की बात है तो मैंने जीवन में जिस एकमात्र नाटक में - अफसोस कि उसी नाटक का नाम याद नहीं रहा - राणा उदय सिंह के बचपन का - अभिनय किया था, उसमें कारू भाई ने मेरे प्राणों की रक्षा करने वाली पन्ना धाय की भूमिका निभाई थी।उन्हें मैने कई बार उसी हिकारत के साथ नयी पीढ़ी के नौजवानों की अभिनय क्षमता का जिक्र करते सुना है जैसा कि सुनते हैं जानी राजकुमार कभी राजेश खन्ना के लिए करते थे।
उनके द्वारा की गयी इस प्राणरक्षा (मंच पर ही सही) के ऋण के अलावे कारू भाई की होली गाने में सिद्धी के कारण भी मैं उनका मुरीद रहा हूँ। कारू भाई, सुधीर भाई और विमल बाबू - इन तीनों गुरुजनों ने गाहे बगाहे धूम्रपान के धत्कर्म में भी मेरा साथ दिया है, सो आभार।
इन नाटकों में संगीत नृत्य के पक्ष किंचित् कमजोर ही थे। एकाध मंगलाचरण / वृन्दगान जैसी प्रस्तुतियां होती थीं जिनमें प्रायः बच्चे बच्चियाँ ही भाग लेते। पौराणिक ऐतिहासिक कथाओं में बीच बीच में संगीत नृत्य की गुंजाइश हो सकती थी पर उन अवसरों का उपयोग कम ही किया जाता। छोटी बच्चियों तक का नृत्य प्रदर्शन गांव के कट्टर संस्कारों को गवारा न था। जो लड़के स्त्रियों का अभिनय करते उनके द्वारा नृत्य की कल्पना भी हास्यास्पद थी। किसी पेशेवर नर्तकी /रंडी को बुलाना भी धनधोर अपवाद का बायस था (अगल बगल के कुछ गांवों विशेषकर राजपूत या पिछड़ी बस्तियों में - दृश्यों / अंकों के बीच के अंतराल में मनोरंजन का यह प्रमुख उपादान था। बल्कि कहीं कहीं तो नाटक गौण हो जाते और नृत्य प्रधान)। पर हमारे यहां एक तो ब्राह्मणवादी संस्कारों का आग्रह। दूसरे नाटक से लोगों का जुडाव संभवतः कुछ ज्यादा भावनात्मक था और उसे ही गौण होते देखना उन्हें मंजूर न था। तीसरे रंडी के नाच में शायद पैसे भी बहुत लगते थे। एक और कारण शायद यह हो कि दर्शकों में एक खासी बड़ी संख्या महिलाओं की होती थी और उनकी उपस्थिति में फूहड़ता से परहेज ही उचित था।
एकाध बार लौंडा नाच जरूर कराये गये थे पर ये प्रयोग भी कुछ खास सफल / लोकप्रिय नहीं हुए। फिलर के रूप में कभी कभी प्रहसन से काम लिया जाता था। एक बार मैंने गुलगुल भाई सुधीर भाई की हिट जोड़ी को दो बेवकूफ़ हवलदारों का शानदार अभिनय करते देखा था, ऐसा याद पडता है। पर वह नाटक की मूल कथावस्तु का हिस्सा था या फिलर, यह ठीक ठीक याद नही।
फिलरों की एक अलग ही समस्या थी। दरअसल नाटक के साथ साथ शिवरात्रि की पूजा भी साथ साथ चलती थी और हर घंटे बाद उसमें एक आरती जैसा कुछ उपक्रम होता था। शंख -घडियालों की आवाज से रजाइयों के नीचे दुबके सो रहे दर्शक भी जाग जाते और यह खतरा होता कि कहीं वे घर की ओर न दुबक जायें। जैसा कि उपर बताया, दूसरे गांवों में इन अंतरालों को ऐसे नृत्यों के सहारे पाट लिया जाता था जिन्हें आज की भाषा में आइटम नंबर कहते हैं। हमारे यहाँ ले दे कर प्रहसनों का ही सहारा था।
जहां तक संगीत की बात है तो हमारे गांव को बेसुरों का गांव कहना शायद अन्याय नहीं होगा। गांव में एकमात्र - सुबोल भाई या उनके परिवार - को छोड़कर किसी में मैंने तो सुर की कुछ खास समझ नहीं पायी। हां, ऊंचे सुरों में लम्बी हाँकने की बात हो तो फिर को बड छोट कहत अपराधू। तो वृन्दगान / मंगलाचरण को संगीतबद्ध करना सुबोल भाई का - जो बांसुरी, तबला और हारमोनियम के बजाने में सिद्धहस्त और नामचीन थे - विशेषाधिकार था। हर कलाकार की तरह वे किंचित् क्रोधी और तुनुकमिजाज थे और बेसुरों की खूब खबर लेते। महाराणा उदय सिंह वाले नाटक में मैं भी मंगलाचरण का भी एक हिस्सा था और बारम्बार गलत सुर लगाने के कारण - निर्देशक का पुत्र होने के कदाचित विशिष्ट स्थान के बावजूद - सुबोल भाई की डांट खायी थी।
आयोजन की चुनौतियों का जिक्र करते समय मैं सबसे बड़ी चुनौती - आर्थिक संसाधनों को तो भूल ही गया। नाटक के आयोजन का निर्णय होते ही सबसे पहले बजट बनाया जाता। फिर अलग अलग परिवारों के लिए बाहैसियत चंदे की राशि निर्धारित की जाती। कभी कभी ऐसे नौकरीपेशाओं के लिए जो स्वयं नाटक के आयोजकों में या उत्साही स्वयंसेवकों में होते- उनके लिए चंदे की राशि अलग से निर्धारित होती यद्यपि इस दोहरी व्यवस्था का बाज दफा उनके परिजनों द्वारा विरोध किया जाता।
जो भी हो , चंदे की राशि को निर्धारित कर देना कुछ कुछ दहेजनिरोधी कानून बना देने जैसा था। असल चुनौती थी उस कानून पर अमल अर्थात चंदे की वसूली। स्वयंसेवकों के घरों से चंदा वसूली में कोई खास परेशानी नहीं होती, अपवादस्वरूप हल्की फुल्की आनाकानी के अलावा। अनेक और ग्रामीण भी उत्साहपूर्वक यथोचित सहयोग करते। ऐसे नौकरीपेशा जो अगल बगल के नगरों - देवघर, दुमका आदि में - पदस्थापित थे , वे भी यथायोग्य सहयोग करते थे।
पर कई ऐसे भी थे जो चंदे से बचने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाते। इनमें बहुतायत ऐसे ग्रामीणों की थी जो न सिर्फ भागलपुर जा बसे थे बल्कि धीरे धीरे जडों से और गांव के समाज से कट से गये थे।चंदा देने वाले संभावित नागरिकों की सूची बनाते वक्त भागलपुर जा बसे सभी प्रवासियों की लिस्ट अलग से तैयार की जाती और दो एक जांबाजों को बाकायदा मोटरसाइकिल में पेट्रोल भरवा कर और थोड़ा बहुत जेबखर्च देकर हर इतवार इस अभियान में प्रवृत्त किया जाता। लेकिन निस्संदेह इस सारे सिलसिले में सबसे कठिन मोर्चा सुरेन बाबू का था जो गांव के सबसे धनाढ्य व्यक्ति थे, गांव के दामाद भी और इलाके भर के कंजूसों के सिरमौर। पर उनकी कथा फिर कभी।
किस्सा-कोताह यह कि चंदे का काम बड़ी थेथरई का था और है - चाहे चंदा शिवरात्रि का हो, दुर्गा पूजा का या किसी और प्रयोजन से। और आखीर में यह भी तय था कि बजट घाटे का ही निकलेगा। तो प्रमुख आयोजकों में से दो चार को इस घाटे की भरपाई की एक अलिखित गारंटी भी देनी पड़ती। अपने जमाने में मैंने भी अपने मित्रों -- उदय और छोटू के साथ मिलकर यह जिम्मेदारी उठायी है जो पहले बाबा और उनके मित्रगण उठाते होंगे और आज नयी पीढ़ी के नौजवान उठा रहे हैं, गो आजकल नाटकों का सिलसिला बंद हो गया है और आज दूसरे प्रकार के - भव्यतर आयोजन होते हैं।
भाग 3 - उपर जिस नाटक में मैंने अपने अभिनय का जिक्र किया है उसमें मेरे फुफेरे भाई धनंजय मिश्र उर्फ लोली भाई ने नायक राणा उदय सिंह की और मुखिया जवाहर भाई ने उनके सेनापति और खलनायक बनवारी सिंह की भूमिकाएं की थीं। जवाहर भाई ने न ठीक से रिहर्सल किये थे न डायलॉग याद करने में कोई दिलचस्पी दिखाई थी। नतीजतन एक सीन के संवाद दूसरे में बोल देते और मौके बेमौके महाराणा की जय हो का उद्घोष कर देते।
इस नाटक के अतिरिक्त दो नाटकों की मिलीजुली स्मृतियाँ जीवित हैं - सिराजुद्दौला और मीर कासिम। इन नाटकों का निर्देशन अरविन्द भाई कर रहे थे जिन्होंने बाबा के तबादले के बाद यह जिम्मेदारी संभाली थी। वे घनघोर नाटकीय शैली के हामी थे और अपने गौरवर्ण , ऊंचे ललाट और अत्यंत तीखे नाक नक्श के कारण लगता था कि सीधे महाभारत के फडफडाते पन्नों से निकले हों। वे और शायद उनका परिवार भी अपनी सामान्य बातचीत में अंगिका की जगह खड़ीबोली का प्रयोग करते था जिसका लोग पीठ पीछे यदा कदा मजाक भी उडाते।
मीरकासिम नाटक में हरेन भाई ने मीरजाफर का अभिनय किया था। कारागार का दृश्य था और बत्तियों पर काले कागज को चिपका कर सलाखें बनायीं गयीं थीं। पश्चाताप में डूबे हुए मीरजाफर को स्वगत भाषण करना था। पर दूसरे कलाकारों की तरह हरेन भाई ने भी डायलॉग वायलाग याद करने की कुछ खास जहमत नहीं उठाई थी। अलबत्ता यह सबक जरूर याद किया था कि हर संवाद ठीक मंच के आगे तक जाकर बोलना है। परिणाम यह हुआ कि हरेन भाई मंच के पीछे तक जाते, परदे से बिल्कुल कान सटा कर प्राम्पटर से डायलॉग सुनते और फिर मंच के आगे आकर बोलते 'मीरजाफर'। फिर लौट कर परदे के पास जा कान लगाते , प्राम्पटर की आवाज ठीक से नहीं सुन पाते तो पूछते ' आंय ?'। फिर सामने आकर बोलते ' बंदी मीरजाफर !'। फिर पीछे जाते। जनता में मच रहे शोर शराबे और उसकी सीटियों का उनपर कोई असर नहीं हो रहा था। वे एक महान अभिनेता और सच्चे स्थितप्रज्ञ थे।
शायद इसी या किसी और नाटक में रम्भो भाई ने या तो किसी पुलिसवाले, किसी फौजी अथवा अपराधी की - याने किसी हथियारबंद शख्स की भुमिका की थी - जो उनके अपने निजी, कैंडेदार चरित्र के अनुरूप ही थी। तो उन्हें किसी दुश्मन को गोली मारनी थी। रिहर्सल में वे गोली चलाने का अभिनय करते वक्त ज्यादा जीवंतता लाने के खयाल से बोलते 'ठांय'। दो चार दिनों के बाद निर्देशक ने उन्हें समझाया कि इस ध्वन्यात्मक अतिरेक की जरूरत नहीं क्योंकि मंच पर उनके हाथ में एक खिलौने वाली ही सही पर आवाज करने वाली पिस्तौल होगी और ठांय की ध्वनि उससे ही निकले तो बेहतर। अगले दिन रोकते रोकते फिर उनके मुंह से निकल ही गया - ठांय। लोग हँसे, वे झेंपे। पर अगले दिन वही ढाक के तीन पात। यह सिलसिला पूरे रिहर्सल के दौरान मुतवातर जारी रहा और अंततोगत्वा मंच पर भी कमर से पिस्तौल निकालने के पहले ही उनके मुंह से बरबस निकल पडा - ठांय ! दुश्मन भी आज्ञाकारी था। वह भी बिना गोली खाये ही ठांय सुनते ही धराशायी हो गया।
भाग 4 - बाबा की सेवानिवृति के बाद सन् 83 के आखीर में हम गांव आये। सन् 85 के अक्तूबर में बैंक की सेवा में आने तक कोई दो साल गांव में बीते। प्रोबेशन के आखिरी छः महीने भी - भागलपुर सिटी में पासिंग के समय भी - गांव में रहा और सन् 88 से 90 तक बांका में पदस्थापना के दौरान भी धर से ही आता जाता था। इन 4-5 सालों के प्रवास में ही गांव से मेरे तन्तु जुडे और समृद्ध हुए। और इसी दौरान नाटकों से जुडने का एक संक्षिप्त ही सही पर प्रत्यक्ष मौका मिला।
बाबा के आते ही यह निर्णय किया गया कि नाटकों का सिलसिला जो दसेक साल से ठप पड गया था - उसे पुनर्जीवित किया जाय। तो उस 3-4 साल के वक्फे में हमने चार या पांच नाटक खेले होंगे - भगतसिंह, भाई भाई , क्षत्रपती शिवाजी और एक या दो और। इन नाटकों के आयोजन में - चंदा उगाहने से लेकर चौकियां ढोने तक - मेंने अपने समकालीन मित्रों - उदय और छोटू उर्फ गंगाधर के साथ गांव के अन्य मित्रों /युवाओं का एक तरह का नेतृत्व करते हुए - सक्रिय भूमिका निभाई थी। हमारी इस तिकड़ी के मार्गदर्शक थे लड्डू भाई। वे अपने जमाने में बडे तेवर वाले युवा थे। कुशाग्र बुद्धि , ताश के उस्ताद खिलाड़ी, क्रिकेट की अच्छी जानकारी और उसके प्रति गहरी अभिरुचि रखने वाले। राजनीति में भी उनकी पैठ उतनी ही गहरी थी और वे गांव के स्तर की राजनीति के भी एक माहिर अध्येता और वक्त पडने पर उसके शातिर खिलाड़ी भी थे। इन कारणों से विशेष कर ताश में सिद्धी और क्रिकेट में रुचि के कारण वे बाबा के अत्यंत प्रियपात्र थे।
पर मैंने आयोजन के भौतिक पक्षों के इतर भी मंच और कला निर्देशन के अलावे पटकथा लेखन की जिम्मेदारियां भी ओढ लीं।पहली दफा हमने नाटक चुना श्री चतुर्भुज बी ए का शहीद भगतसिंह। निर्देशक (बाबा) - की अनुमति से मैने पूरी की पूरी पटकथा का पुनर्लेखन कर दिया और सारे संवाद भी फिर से लिख डाले। शायद इससे कथावस्तु को एक ज्यादा आधुनिक और आकर्षक कलेवर मिला गया। यद्यपि यह भी संभव है कि मेरे प्रयास पर जाने अनजाने मनोज कुमार की फिल्म शहीद का प्रभाव रहा हो। जो भी हो, नाटक काफी सफल रहा और एक लम्बे अर्से तक सभी प्रतिभागियों पर इसका एक सुखद सुरूर सा छाया रहा। अभिनेताओं की मुझे ठीक ठीक याद नहीं - शायद लड्डू भाई ने भगतसिंह की भूमिका की थी और उदय नें सांडर्स की। मित्र मुरलीधर ने एक मसखरे सिपाही की भूमिका में बड़ी वाहवाही लूटी थी , इतना भर याद है। यह भी स्मृति है कि भगतसिंह और साथी क्रान्तिकारियों की फांसी का दृश्य आदमकद पुतलों के सहारे दर्शाया गया था और काफी जीवंत बन पड़ा था।
इस आयोजन में अपनी लगभग केंद्रीय भूमिका के कारण, और शायद पहला अवसर होने के कारण भी, ग्रीनरूम के थ्रिल की यादें आज भी ताजा हैं। जैसा कि भारतवर्ष के हरेक आयोजन में होता ही है, एक बेमतलब सी आपाधापी, हल्ला- गुल्ला और शोर शराबा। अगले सीन की तैयारी में परेशान कला निर्देशक। नाटक देखने में एकाग्र तल्लीनता के कारण बार बार पर्दा गिराने भूल जाने वाला जवान। एन वक्त पर या तो जेनरेटर का स्टार्ट होने से इन्कार कर देना या जेनरेटर वाले का गांजे के चक्कर में कहीं गायब हो जाना, आचानक माइक्रोफोन के स्वर का लोप हो जाना। अपने मेकअप और कॉस्ट्यूम में सजे धजे, अजीब से दिखते, खोये खोये से अभिनेता जिनमें से एकाध एन वक्त पर , सीन से ठीक पहले मूतने निकल जाते। लगभग हर सीन की सफलता के बाद दर्शकों का एक हिस्सा - विशेषकर बुजुर्गवार- अभिनेताओं को बधाई देने अंदर आता। कुछ ऐसे भी आते जो पूरे आयोजन से किसी प्रत्यक्ष जुडाव के नहीं होने के कारण थोडे उखड़े /उपेक्षित सा महसूस कर रहे होते और ग्रीनरूम में आकर इस आइडेंटिटी क्राइसिस से उबरने का प्रयास करते - जैसे कि बालमुकुंद उर्फ बालो दा, जो हर बार ग्रीनरूम से निकलकर दर्शकों पर एक ऐसी अभिमान भरी विहंगम दृष्टि डालते जैसा कि सुनते हैं दिल्ली के लोगबाग अपने बेटे के जन्मदिन की पार्टी में किसी केंद्रीय मंत्री को बुलाने के बाद अपने पड़ोसियों पर डालते हैं। ग्रीनरूम में इस आवाजाही को रोकने अथवा नियंत्रित करने के प्रयास प्रायः असफल ही होते। इस ट्रैफिक का एक कारण ग्रीनरूम में चाय और भंग की सरकारी व्यवस्था का होना भी हो सकता है।ग्रीनरूम से थोडा हट के वरिष्ठ स्वयंसेवकों के लिए - कभी कभी चिलम का भी इंतजाम होता।
अगले साल या फिर उसी साल शिवरात्रि के अगले रोज - ठीक ठीक फिर याद नहीं - हमने नाटक खेला - भाई भाई। इस दफा मैने जोखिम उठाया, एक गैर पौराणिक/ ऐतिहासिक कथावस्तु चुनी यद्यपि उसे पूरी तरह सामाजिक के परंपरागत ढांचे में भी नहीं रखा जा सकता क्योंकि सामान्य सामाजिक नाटकों की तरह वह सुधारवादी संदेशों / प्रेरणाओं से ओतप्रोत भी नहीं था। मैंने पटकथा को किसी पुस्तक या कहानी पर आधारित नहीं किया - इरादा किया कि एक नया प्रयोग किया जाये। एक ऐसी कथा लिखी जो कि पहले हिस्से में दहेज आदि जैसे कुछ चलताऊ सामाजिक सरोकारों के इर्द गिर्द थोडे हल्के फुल्के मनोरंजक अंदाज में चली। दूसरे हिस्से में मैंने थोड़ा और जोखिम लिया और कहानी में एक कोर्ट रूम ड्रामा डाला जिसमें एक पात्र हत्या का आरोपी है और शायद उसका भाई कोर्ट में जिरह कर के उसे बरी कराता है। इस थ्रिलरनुमा जिरह में मुख्य नुक्ता शायद हत्या के वक्त बंद हो गयी एक घड़ी थी। डायलॉग के बारे में तो शायद दावा किया जा सकता है कि वे बिल्कुल ओरिजिनल थे पर कहानी के ताने बाने पर रामकुमार की एक एकांकी जो किसी पाठ्य पुस्तक में पढी थी, बी आर चोपड़ा की वक्त और कभी बचपन में पढी अर्ल स्टेनली गार्डनर की किसी किताब की छाया स्पष्ट थीं। अंततः पटकथा बडी प्रवाहमय और मनोरंजक बन पड़ी हालांकि दो कमियां फिर भी थीं। एक तो स्त्री पात्रों का अभिनय अभी भी लडकों के ही जिम्मे था। दूसरे कहानी का जो अपराध विषयक हिस्सा था, उसकी कुछ बारीकियाँ हो सकता है दर्शकों के एक वर्ग को ठीक से पल्ले न पडीं हों।
अभिनेताओं के नाम ठीक से कुछ याद नहीं। लड्डू भाई , उदय कुमार, मुरलीधर, बिन्नो, अजीत भाई, नवरतन, गौतम इत्यादि के पाठ करने की कुछ स्मृति है। इतना याद है कि उस भाई की केंद्रीय भूमिका में - जो अदालत में जिरह कर के अपने भाई को बचाता है - बबलू उर्फ शान्तनु था। मैंने संवादों में किन्चित आधुनिक और मुहावरेदार भाषाशैली का प्रयास किया था और नायक के लिए उसकी सही समझ और तदनुरूप संवाद अदायगी की क्षमता अनिवार्य थी। बबलू इस कसौटी पर खरा उतरता था।
यह नाटक बहुतों को आज पचीस साल बीत जाने के बाद भी, मनोहर भाई जी के कारण याद है। वे गांव / संघ के सबसे उत्साही और कर्मठ कार्यकर्ताओं में से थे। उन सभी उपक्रमों में जहाँ शरीर के बल की आवश्यकता होती लोग उन्हें श्रद्धापूर्वक हरावल दस्ते में जगह देते। भोज-भात का मामला होता तो वे अतिरिक्त उत्साह में रहते। उनके बलिष्ठ शरीर और बौद्धिक क्षमताओं में छत्तीस का आंकड़ा था, इसलिए जब भी कुछ बोलते तो कुछ उल्टा या उस्सठ ही बोल जाते। निश्छल हृदय के थे इस में कोई शंका नहीं पर वे हमारे गांव / इलाके की उस परंपरा के ध्वजवाहकों में से एक थे जिसमें अपने भदेसपन को परचम की तरह लहराते चलना एक शान की बात मानी जाती है।
अपने बांगडूपन के बावजूद मेरे स्नेहभाजन रहे हैं। प्रसंगवश हाल में ही उनके पुत्र ने - लड्डू भाई और गुलगुल भाई के पुत्रों के साथ - बैंकों में पी ओ बन कर गांव का गौरव बढाया है।
तो मैंने थोड़ा हास्य उतपन्न करने के खयाल से नाटक में एक प्रसंग डाला था कि दहेजलोभी पिता - जिनकी भूमिका अपने मनोहर भाईजी कर रहे थे -अपने पुत्र के साथ लड़की देखने आये हैं। बस में आये हैं और भीड़भाड़ में दुर्भाग्यवश उनके कुर्ते की एक आस्तीन फट कर अलग हो गयी है।
लड़की के पिता औपचारिक तौर पर पूछते हैं - आने में कोई तकलीफ तो नहीं हुई ? इस पर मनोहर भाईजी को अपने कुर्ते की फटी हुई आस्तीन दिखाते हुए जवाब देना था -- नहीं कुछ खास नहीं। बस मेरे कुर्ते की एक बांह जरा बस में ही रह गयी। वैसे तो मनोहर भाईजी पठन पाठन के प्रति अपनी घनघोर अरुचि के लिये विख्यात थे और लगभग सभी विषयों से बराबर का बैर रखते थे (पता नहीं सच या झूठ पर एक बार अंग्रेजी की परीक्षा में कुंजी से नकल टीपते वक्त see summary page 43 लिखने के कारण किसी खुंखार गुरूजी के द्वारा उनकी हंगामाखेज पिटाई का किस्सा भी आम था)।
लेकिन हो सकता हिंदी व्याकरण के प्रति उनकी अरुचि अपेक्षाकृत सघन किस्म की हो। यह भी संभव है उन्हें पुनरुक्ति अलंकार से कुछ खास बैर हो। जो भी हो, एक ही वाक्य में 'बस' शब्द के दो बार प्रयोग के कारण मनोहर भाईजी की बस बिल्कुल ही पटरी से उतर गयी। रिहर्सल के दौरान वे कभी कहते -- बस जरा बस। कभी - जरा कुर्ते की बस में बांह। कभी - बस जरा कुर्ते की बस में बांह। हालात ये हो गये कि मनोहर भाईजी के खडे होते ही हँसी की फुहारें छूटने लगती और लोग समवेत स्वर में नारे लगाने लगते - बस जरा बस। नतीजा जो होना था वही हुआ अर्थात नाटक के दिन भी मनोहर भाई जी की बस - बस जरा बस के आगे नहीं बढ़ पायी।
भाग 5 - नाटकों के आयोजन का भौतिक पक्ष तो श्रमसाध्य होता ही था। शायद इसी के मद्देनजर किसी ने शायद जोगी दा ने - एक पेशेवर कलाकार का नाम सुझाया जो खुद पूरे साजोसामान और अपने ट्रुप के साथ पेशेवराना तौर पर नाटकों की प्रस्तुति भी करते थे और जहाँ लोग खुद अभिनय आदि कर रहे हों, वहां मंचसज्जा आदि के कलात्मक पक्ष संभालते थे। कलाकार का नाम था छेदीलाल चमरखानी। इस अनगढ नाम और जोगी दा द्वारा की गयी उनकी प्रशस्ति ने हमें उत्सुक कर दिया था। तो अपने किसी मित्र के साथ मैं उनके दर्शनों को उनके कस्बे पुनसिया गया। दर्शन से मन छोटा हो गया। यथा नाम तथा रूप।मैली धोती, टूटही चप्पलें, खुंटही दाढी और मुंह में बीड़ी। खैर बातचीत हुई। वे अगले दिन गाँव आये, पटकथा देखी और फुलवरिया-बैजानी जैसे ख्यातनाम गांव में अपनी प्रतिभा दिखाने के अवसर और हमारे द्वारा किये जा रहे समादर से अभिभूत होकर एक लगभग प्रतीकात्मक दक्षिणा की एवज में सहयोग के लिए तैयार हो गए।
एन शिवरात्रि के दिन दो ट्रकों में लदे अपने लाव लश्कर के साथ चमरखानी जी का पदार्पण हुआ। वे अपने साथ न सिर्फ बांस बल्लम , परदे-कनात, तीर तलवार, मुकुट मोरछल, कपडे-लत्ते बल्कि अपने दल के लिए खाना बनाने के बर्तन भांडे भी लेकर आये थे। उनकी फौज ने फटाफट देखते ही देखते एक विराट मंच तैयार कर दिया जिसकी भव्यता देखते ही बनती थी। उसके बाद उन्होंने जब पात्रों का मेकअप किया जो ऐसा शानदार था कि अभिनेता आईनों में देख कर खुद को नहीं पहचान पा रहे थे। नाटक था छत्रपति शिवाजी। लेखक एक बार फिर श्री चतुर्भुज बी ए और पटकथा मेरी। शायद छोटू उर्फ गंगाधर ने शिवाजी और उदय ने अफजल खान या औरंगजेब की भूमिका की थी - अलबत्ता ठीक ठीक याद नहीं।
चमरखानी जी ने रंगों और रोशनी का ऐसा इंद्रधनुषी संसार रच दिया कि लोग दांतों तले उंगली दबा बैठे। नाटक के क्लाइमैक्स में शिवाजी द्वारा दुर्गा की पूजा का दृश्य था। पहली बार मंच पर अभिनय का मौका एक लडकी को मिला - गुलगुल भाई की बेटी डिम्पल को। उसे करना कुछ नहीं था। बस आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठाए खडा रहना था। चमरखानी जी ने उसकी ऐसी ज्योतिर्मयी रूपसज्जा की थी कि लोगों की आंखें चौंधिया गयीं।
इस नाटक से ऐसी धूम मची कि यह फैसला किया कि अगले ही दिन एक और नाटक खेल लिया जाय। चतुर्भुज का ही कोई नाटक चुना गया। पटकथा संवादों में किसी संशोधन का सवाल ही नहीं पैदा होता था, बिना किसी रिहर्सल के सीधे चमरखानी जी की प्राम्पटिंग के सहारे यह नाटक खेला गया। उन्होंने इस नाटक में निर्देशक, कला संयोजक, मेकअप मैन, प्राम्पटर याने पीर बावर्ची भिश्ती खर के सारे कर्तव्य निभाये थे। एक दिन की तैयारी पर खेला गया यह नाटक भी मूलतः अपनी भव्य साज सज्जा के कारण काफी सफल रहा। यद्यपि कहीं न कहीं कलात्मक वैभव के कारण कथ्य के गौण हो जाने से मानो नाटक की आत्मा जाती रही और उसमें वही खोखलापन नजर आया जो अक्सर संजय लीला भंसाली की फिल्मों में नजर आता है। अस्तु। दो दॅ नाटकों की जोरदार सफलता की खुशी में एक सहभोज का आयोजन हुआ जिसमें स्वभाविक ही था कि मुख्य अतिथि होने का सम्मान छेदीलाल चमरखानी जी को मिला। एक विचित्र संयोग रहा कि यह हमारे यहाँ खेला गया आखिरी नाटक सिद्ध हुआ। यह सन् 90 की बात रही होगी। सन् 91 में मेरा तबादला देवघर हो गया और गांव छूट गया। पता नहीं किस संयोग से इसके साथ ही यह लम्बी परंपरा आचानक लगभग बिलावजह खत्म हो गयी।
ऐसे ही मनोरंजक और परिहासपूर्ण प्रसंगों से भरी हुई थी हमारे गांव के नाटकों की अनगढ़ दुनियां जहां कथ्य से ज्यादा भाव और प्रस्तुति से ज्यादा सहभाग अहम था। शायद यह सभी गांवों के नाटकों की साझी कहानी हो। मुझे दूसरे गांवों के नाटक देखने का ज्यादा मौका तो नहीं मिला। एक बार जरूर अपने ननिहाल धुआबै में - जिसकी स्मृतियों का बयान अलग से करूंगा - अपने मित्र और मौसेरे भाई विवेकानंद मिश्र के साथ एक नाटक देखने का अवसर मिला था। किस त्योहार पर वहां ये आयोजन होते थे, भूल गया हूँ। यह याद है कि चुंकि वहाँ ब्राह्मणों की आबादी और वर्चस्व -दोनों हमारे गांव के मुकाबले कमतर थे , तो अन्य जातियों - कुर्मी, यादव और अमात - के युवकों की भागीदारी भी नाटकों में बराबर की थी जिसकी कमी हमारे यहाँ खटकती थी।पर निर्देशन का भार शायद स्थायी रूप से मेरे मामा स्व सीताराम पांडेय ही संभालते थे। मामा और उनके भतीजे और हमारे ममेरे भाई श्री गंगाधर पांडेय - जो उमर में उनसे कुछ बडे ही थे - दोनो गांव से बी ए करने वाले पहले विद्यार्थी थे - तो पूरे प्रांतर में उनका समादर था। मामा की विचक्षण प्रतिभा किंतु किंचित दुखद जीवन की कथा भी अलग से।
तो रामकथा पर आधारित इस नाटक की जो खासियत याद रह गयी है वो यह कि हर अभिनेता घड़ी पहनने के प्रति बडा सजग था। जिसके पास अपनी घड़ी नहीं भी उसने किसी मित्र परिजन से उधार लेकर पहनी थी। फलतः राम दरबार के दृश्य में प्रभु राम और लक्ष्मण के साथ साथ माता सीता और भक्त हनुमान तक घडियों से सुशोभित थे।
एक और मजेदार प्रसंग का जिक्र रह गया। सीता स्वयंवर का दृश्य था। सिंहासन पर महाराज जनक विराजमान। वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि यथास्थान। मुंह लटकाए हुए रावणादि राजागण जो अपना सारा बल-कौशल लगा कर भी शिवधनुष का जो है सो कि कुछ नहीं उखाड़ सके। मैथिली सीता वरमाला लेकर तैयार। नेपथ्य में लक्ष्मण से वाकयुद्ध की तैयारी में चिलम फूंकते परशुराम।
जनक और विश्वामित्र आदि की डायलॉगबाजी के बाद श्रीराम उठे, संकल्प भरे कदमों से वेदी तक गये, शिव की स्तुति में एक कवित्त बोलने के पश्चात धनुष को प्रणाम किया। आगे सीन यह था कि उन्हें एक नाटकीय अदा से धनुष को उठाना था, एक मारक डायलॉग बोलकर उसकी प्रत्यंचा खींचते हुए उसे भंग करना था। धनुषभंग को आसान बनाने के लिए उसे पहले ही दो टुकड़ों में काट कर फिर बीच में टेप या रस्सी के सहारे जोड़ दिया गया था। पर शायद उस जोड में ही कोई तकनीकी खराबी रह गई या फिर रावण द्वारा जबरदस्त जोर आजमाइश के जीवंत अभिनय के क्रम में वह जोड जवाब दे गया। नतीजतन जैसे ही श्रीराम ने धनुष उठाया वह दो टूक होकर बिना प्रत्यंचा खींचे ही उनके हाथ में मरे हुए मुर्गे की तरह लटक गया। धनुष के इस अप्रत्याशित शीलभंग से रंग में भंग हो गया। इसके साथ ही प्रभु राम की मर्यादा भी भंग हो गई और उन्होंने वहीँ मंच पर ही राजा जनक के विरूद्ध , जो बेचारे नाटक के कला निर्देशक भी थे - षड़यंत्र और गबन आदि के आरोप लगा दिए, यह भी खयाल नहीं किया कि वे उनके होने वाले ससुर हैं।
बाबा भी अपने ननिहाल कहलगांव या भागलपुर के किसी नाटक के एक प्रसंग की चर्चा करते थे। महाभारत के द्रौपदी चीरहरण का दृश्य था। जो सुरेश सिंह नामक बालक द्रौपदी बना था उसे गिन कर दस साडियां पहनायी गयी थीं। दुशासन बने जवान को ताकीद कर दी गयी थी कि उसे नौ साडियां खींचनी हैं और दसवीं में जब द्रौपदी जोरदार संघर्ष करेगी तो परास्त होकर गिर जाना है। पर हुआ यह कि गांधारी बना हुआ कलाकार अपनी साड़ी कहीं भूल आया , निर्देशक से बताने की हिम्मत नहीं हुई, कोई दूसरा मिला नहीं तो उसने चिरौरी करके द्रौपदी से उस की आनाकानी के बावजूद एक साड़ी उधार ले ली। कुछ देर बाद पर्दा उठा। निर्देशक खुद धृतराष्ट्र बने मंच पर विराजमान थे और दुशासन जुए में निमग्न था सो द्रौपदी का राज , राज ही रह गया। अंततः धर्मराज अपना राजपाट और अपने भाईयों को हारने के बाद अपनी भार्या को भी द्यूत में हार ही गये और वह क्षण आ गया कि जिसने दुशासन को भारतीय इतिहास का एक अमर खलनायक बना दिया है। दुशासन की भूमिका कर रहा युवक एक खाते पीते सामंती परिवार का , उछलती मांसपेशियों और छलकते जोश वाला गबरू जवान था। उपर से अभिनय का उत्साह और , जैसा कि पाठक अब तक जान ही गये होंगे, भंग का गाढा नशा। उसने द्रौपदी को खींच कर मंच पर लाते वक्त बिल्कुल ही ध्यान नहीं दिया कि वह उसे साडियों की संख्या के बारे में कुछ बताना चाह रहा/रही है और भैया दुर्योधन की ललकार पर बाकायदा चीरहरण का कार्यक्रम शुरू कर दिया। धबरायी हुई द्रौपदी उंचे स्वर में तो अपने सखा कृष्ण को गुहार लगा रही थी और दबे स्वर में दुष्ट दुशासन को यह बताने का प्रयास कि साडियों की पूर्व निर्धारित संख्या में कमी आ गई है। पर फिलवक्त दुशासन उस लोक में पहुंच गया था कि जहां खुद को खुद की खबर नहीं आती। सातवीं साड़ी तक पहुंचते पहुंचते यकायक गांधारी को भी अपने उधार की याद आ गयी। उसकी भूल के कारण उसके ही पुत्र के हाथों वह जघन्य अपराध होने जा रहा है जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत की मूलकथा में एन वक्त पर रोक लिया था और जो अनगिनत हिंदी फिल्मों में हीरो ठीक समय पर पहुंच कर रोकते रहे हैं, यह जान कर गांधारी का हृदय हाहाकार कर उठा। शायद इसके परिणामस्वरूप उन्हें निर्देशक महोदय से जो प्रताड़ना मिलने वाली थी इस भय ने भी उन्हें आंदोलित किया हो। जो भी हो, जब वे आचानक बोलने लगीं - ऐसा मत करो पुत्र दुशासन, ऐसा मत करो - तो जनता और निर्देशक, दोनों उलझन में पड गये।इस बीच मामला नवीं साडी तक जा पहुंचा था और दर्शक सांस रोक कर अपनी लाज बचाने के लिए मर्मांतक संघर्ष कर रही द्रौपदी के जीवंत अभिनय को देख रहे थे। पापी दुशासन ने भी ऐसे संघर्ष की अपेक्षा नहीं की थी - वह पटकथा के हिसाब से एक और साड़ी खींचने के लिए प्रतिबद्ध था। तो उसने बल में थोडासा छल मिलाया। हाथ की साड़ी को एक जुम्बिश भर ढील दी - जैसे भ-काटा के पहले पतंग को देते हैं -और फिर झटके से जो खींचा तो पांचाली (उर्फ सुरेश सिंह) जनता के सामने अपने धारीदार अंडरवियर के पूरे ऐश्वर्य में खड़ी हो गई।
इती श्री नाटक कथा !!

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