रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

सोमवार, 19 दिसंबर 2011

जुल्म से लड़ने का हौसला थे अदम

मुशायरों में घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा-मटमैला कुरता और गले में सफेद गमछा डाले एक ठेठ देहाती इंसान, जिसकी ओर आपका शायद ध्यान ही न गया हो, यदि अचानक माइक पर आ जाये और फिर ऐसी रचनाएं प़ढे कि आपके दिमाग में एक खलबली-सी मच जाये, तो समझिए वो इंसान और कोइ नहीं अदम गोंडवी हैं अदम शहरी शायर के शालीन और सुसंस्कृत लहजे में बोलने के बजाय ठेठ गंवइ दोटूकपन और बेतकल्लुफी से काम लेते थे उनकी गजलों-शायरी, कविताओं का आक्रामक और तड़प से भरा हुआ व्यंग्य दिल में किसी नश्तर की तरह चुभ जाता है.


 प्रणय कृष्ण

अवामी शायर अदम गोंडवी ने 18 दिसंबर 2011 को सुबह 5 बजे पीजीआइ, लखनऊ में अंतिम सासें लीं. पिछले कुछ समय से वे लीवर की बीमारी से जूझ रहे थे. अदम गोंडवी ने अपनी गजलों को जन-प्रतिरोध का माध्यम बनाया. उन्होंने इस मिथक को अपने कवि-कम से ध्वस्त किया कि यदि समाज में बड़े जन-आंदोलन नहीं हो रहे, तो कविता में प्रतिरोध की ऊजा नहीं आ सकती. सच तो यह है कि उनकी गजलों ने बेहद अंधेरे समय में तब भी बदलाव और प्रतिरोध की ललकार को अभिव्यक्त किया, जब संगठित प्रतिरोध की पहलकदमी समाज में बहुत क्षीण रही. जब-जब राजनीति की मुख्यधारा ने जनता से दगा किया, अदम ने अपने साहित्य को राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल साबित किया.

अदम गोंडवी ने तालीम सिफ प्राइमरी तक पायी और मुख्यत: वे खेती-किसानी करते थे. उनकी शायरी को इंकलाबी तेवर निश्चय ही वाम आंदोलनों के साथ उनकी पक्षधरता से प्राप्त हुआ था. अदम ने समय और समाज की भीषण सच्चइयों से, उनकी स्थानीयता के पार्थिव अहसास के साक्षात्कार लायक बनाया. गजल को उनसे पहले चमारों की गलीमें गजल को कोई न ले जा सका था.

मैं चमारों की गली में ले चलूंगा आपकोजैसी लंबी कविता न केवल उस सरजूपार की मोनालिसा के साथ बलात्कार, बल्कि प्रतिरोध की संभावना को सूंघ कर ठाकुरों द्वारा पुलिस के साथ मिल कर दलित बस्ती पर हमले की भयानकता की कथा कहती है. गजल की भूमि को सीधे-सीधे राजनीतिक आलोचना और प्रतिरोध के काबिल बनाना उनकी खास दक्षता थी-
जुल्फ-अंगड़ाइ-तबस्सुम-चांद-आइना-गुलाब 

भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब 
पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी 
इस अहद में किसको फुर्सत है प़ढे दिल की किताब
इस सदी की तिश्नगी का जख्म होंठों पर लिये
बेयकीनी के सफर में जिंदगी है इक अजाब 

भुखमरी, गरीबी, सामंती और पुलिसिया दमन के साथ-साथ उत्तर भारत में राजनीति के माफियाकरण पर हाल के दौर में सबसे मारक कविताएं उन्होंने लिखीं. उनकी अनेक पंक्तिया आम प़ढे-लिखे लोगों की जबान पर हैं-

काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में 

उन्होंने सांप्रदायिकता के उभार के अंधे और पागलपन भरे दौर में गजल के ढांचे में सवाल उठाने, बहस करने और समाज की इस प्रश्न पर समझ और विवेक को विकसित करने की कोशिश की- 

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ्न है जो बात, अब उस बात को मत छेडिए
गर गलतियां बाबर की थीं तो जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेडिए

इन सीधी अनुभवसिद्ध, ऐतिहासिक तर्क-प्रणाली में गुंथी पंक्तियों में आम जन को सांप्रदायिकता से आगाह करने की ताकत बहुत से मोटे-मोटे उन ग्रंथों से ज़्यादा है, जो सेक्युलर बुद्धिजीवियों ने रचे. अदम ने सेकुलरवाद किसी विश्वविद्यालय में नहीं सीखा था, बल्कि जिंदगी की पाठशाला और गंगा-जमुनी तहजीब के सहज संस्कारों से पाया था.

आज जब अदम नहीं हैं तो बरबस याद आता है कि कैसे उनके कविता संग्रह बहुत बाद तक भी प्रतापग़ढ जैसे छोटे शहरों से ही छपते रहे, कैसे उन्होंने अपनी मकबूलियत को कभी भुनाया नहीं और कैसे जीवन के आखिरी दिनों में भी उनके परिवार के पास इलाज लायक पैसे नहीं थे. उनका जाना उत्तर भारत की जनता की क्षति है, उन तमाम कार्यकर्ताओं की क्षति है जो उनकी गजलों को गाकर अपने कार्यक्रम शुरू करते थे और एक अलग ही आवेग और भरोसा पाते थे, जुल्म से टकराने का हौसला पाते थे, बदलाव का यकीन पुख्ता होता था. इस भीषण भूमंडलीकृत समय में जब वित्तीय पूंजी के नंगे नाच का नेतृत्व सत्ताधारी दलों के माफिया और गुंडे कर रहे हों, जब कारपोरेट लूट में सरकार का साझा हो, तब ऐसे में आम लोगों की जिंदगी की तकलीफों से उठनेवाली प्रतिरोध की भरोसे की आवाज का खामोश होना बेहद दुखद है अदम गोंडवी को तमाम संस्कृतिकर्मी अपना सलाम पेश करते हैं.

(लेखक आलोचक और जन संस्कृति मंच के महासचिव हैं)

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