रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

16 वें भारत रंग महोत्सव का दूसरा दिन

अमितेश कुमार का यह आलेख उनके ब्लॉग रंगविमर्श से साभार. अमितेश कुमार से amitesh0@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. 

अपेक्षाकृत अधिक विलंब से बहुमुख पहुंचने के बाद प्रेक्षागृह में अंदर हुआ तो आगे इतने लोग खड़े थे कि मंच पर क्या हो रहा है यह दिखा ही नहीं, उचक उचक कर देखने के कुछ प्रयासों के बाद रंगमंडल के एक वरिष्ठ सदस्य ने सूचना दी कि चार बजे से एक और शो है, आश्वस्त हो बाहर गया. बगल में अभिमंच में उरूभंगमकी छः घंटे की महाकाव्यात्मक  की प्रस्तुति देखने  के लिये दर्शक कतारबद्ध थे. ऐसी महात्वाकांक्षी प्रस्तुति को भारंगम में रखना एक साहस है. बहरहाल चार बजे हम फिर बहुमुख में थे अग्रिम पंक्ति के दर्शक के रूप में. इजराइल के नाटक वुमन हु डिड्नाट वांट टु कम डाउन टु अर्थशुरू हो गया था. नाटक की शुरूआत बेहद आकर्षक और पकड़ में लेने वाली थी लेकिन समापन की ओर बढ़ने के साथ साथ इसने अपनी पकड़ ढीली कर दी और इसके कथ्यगत प्रभाव की जगह शरीर की  कलाबाजियां हावी हो गई. नाटक ऐसी महिला के बार में है जो अपनी स्वत्व पर कायम रहना चाहती है, स्वत्व पर कायम रहने का एक महिला का निर्णय कितना टिकाऊ हो सकता है! उसे बाहरी और भीतरी दबावों के बीच इस पर टिके रहना है नाटक का अंत इस निर्णय पर टिके रहने के साथ होता है. प्रस्तुति में रूपक है कि  महिला अभिनेता  पर जमीन और धूल नहीं छुना चाहती है. शारीरिक कलाबाजियों से वह अपने को जमीन पर आने से बचाये रखती है. प्रस्तुति के तीन हिस्सों में पहला हिस्सा अत्यंत रोचक और बाकी दोनों हिस्से उसके दोहराव है. जो विसंगत हैं लेकिन उनका कोई अर्थ नहीं बनता, हम बस एक देह की कलाबाजी देखते हैं. प्रस्तुति न्यूनतम मंचीय उपकरणों और शरीर की गति से एक प्रभावी देह भाषा रचती है लेकिन असरदारी कथ्य की अनुपस्थिति का अभाव इसे कमजोर कर देता है.  
 रानावि परिसर में खुले रंगमंच पर बस्तर बैंड की प्रस्तुति हुई. बस्तर बैंड की एक जैसी लगती प्रस्तुतियों में भी अनूप रंजन पांडेय नवीनता तलाशते रहते हैं जो उसकी रोचकता बनाए रखती है. इस बार शुरूआत का अंदाज बदला हुआ था. एक के बाद एक दर्शक बस्तर क्षेत्र के वाद्य यंत्रों और ध्वनियों से परिचय प्राप्त करते हैं जो एक दूसरे के साथ संगत करती हुई वातावरण का निर्माण भी करती है. ऐसा लगता है कि दर्शक बस्तर  अंचल में हैं. आदिवासियों के नृत्य के साथ उन क्षेत्रों की वाचिक ध्वनियों को हम सुनते हैं, और वह दर्शकों को अपने साथ जोड़ती है. आधुनिकता के प्रभाव में बस्तर की या इन जैसे अन्य क्षेत्रों की ये आदिम औरे मौलिक ध्वनियां जो सामुदियकता और स्थानिय संस्कृति के सरंक्षण में पल्लवित होती रही है  अब कितनी बची रह पायेंगी ये सोचने का विषय है. इनका सरंक्षण कर व्यापक दर्शकों के सामने प्रस्तुत करना एक इनको जीवंत बनाए रखने का एक विकल्प है लेकिन इन्हें इनके क्षेत्र में भी हमें बचाना होगा, ऐसे समय में जब वो क्षेत्र ही लालची निगाहों के निशाने पर हैंबस्तर बैंड की प्रस्तुति के बंधे स्वरूप को अब खोलना चाहिये क्योंकि इसकी मुक्ति उन्मुक्तता में है जो ऐसी संस्कृतियों की विशेषता है.
कमानी सभागार में दिनेश ठाकुर की अंजीएक मुंबईया प्रस्तुति है यानी दर्शकों के लिये भरपूर मनोरंजन. नाट्य प्रस्तुति की तकनीक भी ऐसी रखी गई थी जिसके बीच में इंप्रोवाइजेशन के लिये पर्याप्त अवकाश था अभिनेता इन अवकाशों में दर्शकों को अपने साथ ले लेते थे. नाटक के भीतर नाटक और आख्यान को तोड़ते रहने की यह युक्ति प्रभावी तो है लेकिन इससे नाटक का समय लंबा हो जाता है. प्रस्तुति का पहला हिस्सा कसा हुआ था लेकिन दूसरा हिस्सा ढीला पड़ गया.  इस हिस्से को संपादित कर लंबाई को कम कर दिया जाता तो नाटक का प्रभाव और भी मर्मिक होता. विजय तेंदुलकर का यह व्यंग्य नाटक भारतीय समाज में उच्चवर्णिय तबके के अंतर्विरिधों और मान्यताओं के खोखलेपन की पोल खोलता है. नायिका अंजली स्वतंत्र, निर्भिक आर्मनिर्भर और अपने घर की एकमात्र कमाऊ सदस्या है,  अपने परिवार के साथ अपने विवाह का बोझ भी उसे ही उठाना है. प्रेम को तरसती अंजली अपने पिता द्वारा बताये गये आचार संहिता में बंधी है और प्रेम की चाह में एक छल का शिकार हो जाती है है. नाटक का व्यंग्य और एंटीक्लाइमेक्स को संभालना कठीन है इसलिये अंत में यह फिसल जाता है. इसके अंत को पचाना दर्शकों के लिये भी सुखद नहीं है अतः नाटककार एक दूसरा अंत भी सूझाता है जो खोखले मध्य्वरगीय नैतिकता की कसौटी पर फिट है. अंजी के जीवन की विडंबना है कि सच्च्चा प्रेम उसके में हिस्से  और प्रेम का एक क्षण भी उसे मिलता है तो उसमें उसकी मर्जी नहीं है लेकिन फिर भी वह इसे संभालती है. पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों की  स्थिति को यह   नाटक  हास्य और व्यंग्य के जरिये उभरता है लेकिन यहां भी संतुलन का सवाल है. निर्देशकीय व्याख्या के कारण तेंदुलकर के नाटकों के व्यंग्य पर  हास्य अधिक हावी हो जाता है. और यह देखना कष्टकर हो जाता है कि सन्न  कर देने वाली स्थितियों में भी दर्शक हंसते हैं. यह कौन सा रस है?

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