रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

बुधनी (नाटक)

विनोद कुमार का मौलिक नाटक.

विभिन प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लेखन कर रहे विनोद कुमार मूलतः साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े हैं. समर शेष है, मिशन झारखण्ड (उपन्यास), आदिवासी संघर्ष गाथा (शोधपरक आलेख) आदि सहित कई कहानियां प्रकाशित. प्रस्तुत नाटक, नाट्यलेखन में उनका प्रथम प्रयास है. मंडली के पाठकों के लिए एक नवीन मंचीय नाट्यलेख प्रस्तुत करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है. इनसे विनोद कुमार, सर्वोदयनगर, डैम साईड, कांके रोड, रांची पर संपर्क किया जा सकता है या फिर vinodkr.ranchi@gmail.com पर मेल भी कर सकते हैं. फेसबुक पर इनसे संपर्क करने के लिए यहाँ क्लिक करें. नाटक के किसी भी तरह के प्रयोग से पूर्व लेखक को सूचित करना किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का दायित्व है, यह बात अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है.– माडरेटर मंडली.

(एक संताल बस्ती. बस्ती को मूर्त करने के लिए एक मिट्टी की रंगीन दीवार, खपरैल मकान का एक हिस्सा. एक घना दरख्त. मिट्टी के दो चार बर्तन आदि. दूर कहीं मांदल बजने की आवाज फिर खामोशी के साथ घुप अंधेरा... और गोल रौशनी में उभरती एक काया. सफेद कपड़े- धोती और कुर्ते में सूत्रधार अवतरित होता है, स्वतः आलाप..)

सूत्रधार  : कबीर दास की उल्टी वाणी, बरसे कंबल, भींगे पानी... मगर दर्शकों, मैं कबीर दास नहीं. हां, मेरी बातें आपको उनकी उलटबासियों जैसी लग सकती है. सब कहते हैं सड़क बना दो, गांव तक बिजली पहुंचा दो विकास हो जायेगा. मैं कहता हूं नहीं... सड़के गांवों का सारा सत्व हर लेंगी. गांवों और उनके आस पास के खेत खलिहानों से सारी हरियाली ढों ले जायेंगी और दे जायेगी अप संस्कृति की रेत ही रेत... ले जायेंगी हमारे गांव की जवान बेटियां और वापस ला कर पटक जायेगी उनकी रुग्ण काया.
(उदास करने वाले धुन के साथ तैरती आवाज...)
सूत्रधार  : बंगाल में बाढ आया तो कहा, दामोदर को बांध दो. जगह-जगह डैम बनाये. कहा, बिजली बनेगी. गांव में रौशनी होगी. खेतों तक पानी जायेगा. जहां एक फसल होता है, वहां तीन-तीन फसलें होगी. हजारो एकड़ जमीन, उनपर लगे प्राकृतिक जंगल, सैकड़ों गांव, ऐतिहासिक धरोहर, जाहेर थान जल मग्न हो गये. उस पर बसी आबादी दर बदर हो गई. विकास की बेदी पर बलि चढ गये सैकड़ों आदिवासी परिवर. तिलैया में डैम बना. कोनार नदी पर डैम बना. मैथन में डैम बना और बना पंचेत में... बंगाल तो बाढ से बच गया, लेकिन झारखंड की धरती की प्यास नहीं बुझी...
(चैंक कर.)
सूत्रधारः पंचेत की ही तो थी बुधनी. पंचेत के एक गांव की, जिसका सर्वस्व छीन लिया बड़े बांध के सौदागरों ने और सड़कों पर भिखाड़न बनाकर छोड़ दिया... बड़ी भोली थी, बड़ी सुंदर. पिता की लाड़ली. भाईयों की दुलारी. लेकिन विकास के पैराकारों के बहकावे में आ गई. और देखते देखते सब पराये हो गये.
(रौशनी के वृत्त के साथ सूत्रधार तिरोहित हो जाता है.)

दृश्य/ अंक-2
(वही पुराना स्टेज. वृक्ष के पीछे से उभरता चांद. मंच पर बिखरी सौम्य रौशनी. कोने में दो बड़े घड़े. एक टोकरी में रखे पत्ते के कोर वाली चूंगी. मंच पर एक युवक गले में मांदल लटकाये उसे बजाने की तैयारी कर रहा है. दो तीन युवतियां कदम से कदम मिलाने का उपक्रम. मंच पर अवतरित होती है सर पर कटे हुए धान/पुआल का बोझा उठाये एक युवा लड़की. कमर से लिपटा साड़ी का छोर. बोझा घर के बगल में सर से गिरा देती है और आंचल से चेहरा पोंछती है.)
पेड़ के समीप जुटे लड़के लड़कियों में से एक आवाज देता है - और कितना काम करेगी बुधनी, देख हम सब तेरा इंतजार कर रहे हैं. रोबन मचल रहा है मांदल पर थाप मारने के लिए..
बस आई, तुम लोग शुरु करो.
(बुधनी घर के अंदर चली जाती है. मंच पर औरत मर्दों और बच्चों की संख्या बढने लगती है. दो बाबू किस्म के आदमी भी दर्शकों में शामिल हैं.)
एक लड़की दूसरे को कोहनी मारते हुए कहती है.
देख ठेकेदार भी आया है..
कैंप का बाबू भी..
आने दो, हमे क्या..फिक करके हंस पड़ती है.
(बुधनी घर से निकल आई है. वही नीले कोर की सफेद साड़ी में. फर्क बस इतना कि जूड़े में फूल लग गये हैं और गीत नृत्य शुरु हो जाता है.)
..सोना दाःदोय गामालेदा, एयांड़
सेना गेगा ओमोन जाना, एयांड़
सेना गेगा ओमोन जाना.
रूपा दाःदोय राम्पिलेदा, एयांड जाना
रूपा गेगा बुसाड़ा जाना, एयांड़
ओतेदो बंसाड़ा...
(सोना सा पानी बरसा, हे मां/ सोना ही उग आया, हे मां/सोना ही उग आया/ चांदी-सी झड़ी लगी, हे मां/ चांदी ही उग आई, हे मां/ चांदी ही उग आई.)
(गान-नाच के बीच बारी बारी से लोग घड़ों के करीब जाते हैं. दानों में भर कर हडि़या पीते हैं. गाने का स्वर धीमा हो जाता है. फोकस में हैं ठेकेदार और अधिकारी.)
 ठेकेदार घड़ों की तरफ इशारा कर-  सर जी, थोड़ा लेंगे..
न बाबा ना. इन जंगलियों ने पता नहीं क्या-क्या मिला रखा है.
(ठेकेदार हंसता है. )
हडि़या है हडि़या. बस थोड़ी सी बास आती है. गटक जाने के बाद हल्की-हल्की खुमारी, हां नीट हुआ तो आपको नहीं पचेगा.
पहले जिस काम के लिए आये हैं, वह तो हो जाये.
उसकी चिंता नहीं. वह तो आप मंत्रीजी को माला पहनाने के लिए लड़की खुद चुनना चाहते थे, इसलिए आपको यहां ले आया. वरना नाच गान के लिए तो जिसे कह देता वही जुटा देता लड़के-लड़कियन को. अरे का मांगते? एक दिन की मजूरी. दारू पीने के लिए थोड़ा पइसा, लेकिन आप तो लड़की को खुद देखना. टटोलना चाहते थे.
(कुत्सित भाव से आंख मारता है. साहब अनदेखी कर जाते हैं.)
अब कौन जानता था कि डैम का उद्घाटन करने के लिए प्रधानमंत्री खुद आ जायेंगे. बड़े आशिक मिजाज हैं हमारे प्रधानमंत्री. उन्हें बैजंतीमाला अच्छी लगती है, शुभलक्ष्मी भाती है. अब इस जंगल झाड़ में कहां से लायें बैजंतीमाला और शुभ लक्ष्मी.
वैजंतीमाला का तो नाम सुना है, यह शुभलक्ष्मी कौन है सर जी?’
शुभलक्ष्मी को नहीं जानते. मीरा फिल्म में उसके गायन और यौवन को देख कर लोग बौरा गये थे...
(ठेकेदार का ध्यान नाचती हुई लड़कियों पर है.)
वह कैसी रहेगी प्रधानमंत्री के स्वागत के लिए? ’
वह कौन..
वह नीले कोर वाली साड़ी में..
(साहब गौर से देखते हैं.)
अच्छी है.
बस अच्छी है! बहुत अच्छी है. उठान तो देखिये सर जी.
अच्छा बाबा, बहुत अच्छी है. बस कहना जरा साफ सुथरे कपड़े पहन कर आये और उस लड़के को भी बुला लो जो ढोलक बजा रहा है..’
मैं क्या कहूंगा, आप खुद बात कर लीजिये..’
मान तो जायेंगे..’
क्यों नहीं ? सारे के सारे बांधपर मिट्टी काटने आते हैं …’
तो चलो उनके घर. अभी बात कर लेते हैं..’
अभी ठीक नहीं होगा. सब नशे में हैं. देर रात तक नाच गान चलेगा. कल सबेरे आकर बात कर लेते हैं..’
(दोनों बाहर निकलने लगते हैं.)
‘…मंच पर खड़ी तो हो सकेगी,
क्या कहते हैं सरजी. अपने घर जवार की लुगाईयां नहीं कि हाथ पैर कांपने लगे. बड़ी जबरदस्त होती हैं
(दोनो के जाते ही गीतो की ध्वनि बढ जाती है. नाच का गोला रौशनी से नहां जाता है.)

दृश्य-तीन
(वही मंच लेकिन प्रकाश व्यवस्था ऐसी की सुबह का आभास दे. मवेशियों के हांके जाने की आवाज. पेड़ के नीचे बेंच पर, घर के सामने पड़ी खाट पर और घर की दहलीज पर बैठे-बतियाते कुछ लोग. जीप के आने और कुछ दूर पर रूकने की आवाज. कुछ अंतराल के बाद मंच पर ठेकेदार और रात वाले साहब का प्रवेश. कुछ बुजंर्ग आगे बढ कर स्वागत करते हैं. कुछ ढीढ से बैठे रहते हैं.)
ठेकेदार  : कैसे हो सालखन?..सरजी, ये इस गांव के मुखिया कह लो, मुंडा कह लो, सब कुछ हैं. इनके कहे पर ही पूरा गांव चलता हैं
सलखन, विनम्र भाव से : कैसे आना हुआ साहब बीरू, एक कुर्सी तो ला साहब के लिए..
(एक लड़का भाग कर भीतर जाता है और लकड़ी की एक कुर्सी ले आता है)
अधिकारी  : मुंडाजी, आप लोग जिस डैम पर काम कर रहे हैं पिछले कुछ महीनों से, कल उसके पावर स्टेशन का उद्घाटन है.. हमारे प्रधानमंत्री आ रहे हैं. बहुत सारे नेता, बड़े-बड़े अधिकारी आयेंगे. हम सबों को मिल कर उनका स्वागत करना है.
सालखन (प्रौढावस्था को प्राप्त एक कद्दावर व्यक्ति) : हां साहेब स्वागत तो करना है, लेकिन अब तक लोगों को मुआवजा नहीं मिला, नौकरी नहीं मिली उल्टे जो नदी सालो भर कलकल बहती थी, वह अभी से सूखने लगी है..
साहब का स्वर रूखा हो जाता है : यह सब बात करने नहीं आया हूं यहां. पहले उद्घाटन हो जाने दो. (फिर स्वर को भरसक मुलायम बना कर) देखिये मुंडाजी, हम यही रहेंगे. आप यही रहेंगे. यह सब तो चलता रहेगा. लेकिन कल तो मेहमान आने वाले हैं. उनका स्वागत-सत्कार करना हम सब का फर्ज बनता है.
सालखनः सो तो है. बोलिये, क्या करना है हमें ?
ठेकेदार : स्वागत समारोह होगा. उसमें नाच गाना, भोजन-भात होगा. साहब को कल रात का नाच गान बहुत अच्छा लगा. वह जो लड़की थी नीले कोर वाली साड़ी पहने...क्या नाम है उसका?
कोई लड़का बोल पड़ता है : बुधनी
और जो मांदर बजा रहा था, उसका नाम?’
रोबन, रोबन मांझी..
ठेकेदार : हां तो साहब उन दोनों को स्वागत समिति में रखना चाहते है. कहां हैं दोनों? बुलाओ तो जरा. साहब दोनों से मिलना चाहते हैं.
(कुछ लड़के दोनों को बुलाने चले जाते है)
साहब : मुंडाजी, पानी की क्या चिंता करते हैं. डैम में पानी भरा हुआ है. कल बटन दबा कर प्रधानमंत्रीजी पावर स्टेशन का उद्घाटन कर देंगे. डैम का फाटक भी उसके बाद खुलेगा. पानी ही पानी होगा चारो तरफ और बिजली भी. तुम्हारा गांव भी जगमग हो जायेगा.
सालखन : पानी तो होगा, लेकिन हमारे खेतों तक कैसे पहुंचेगा साहब... कैनाल कहां बना है अभी?..और बिजली का तो तार ही नहीं पहुंचा है गांव तक..
साहब का मूड बिगड़ने लगता है. बुदबुदाते हैं : साला.. अडि़यल बुड्ढा. (उंची आवाज में) दो दिन में लग जायेंगे तार.
सलखन : हमे तो संदेह है कि पानी कभी हमारे खेतों तक पहुंच भी पायेगा? चारो तरफ उबड़-खाबड़, उंच-नीच पथरीली जमीन.
ठेकेदार : यह सब सोचना तुम्हारा काम नही. बड़े-बड़े इंजीनियर-ओवरसीयर इस काम में लगे हैं.
(बुधनी और रोबन आ जाते है. बुधनी अपनी एक सहेली के साथ दरवाजे पर सलज्ज भाव से खड़ी है. रोबन साहब के करीब आकर खड़ा हो जाता है. साहब रोबन से हाथ मिलाते हैं, लेकिन उनका ध्यान बुधनी की तरफ है. रोबन मुड़ कर एक बार बुधनी की तरफ देखता है और फिर साहब की हथेली से अपना हाथ छुड़ा लेता है.)
साहब (बुधनी की तरफ मुखातिब हो कर)  : कल रात तुम दोनों का नाच बहुत अच्छा था बुधनी. कल सुबह तुम लोग कैंप आओ. अपने संगी साथियों को भी लेकर आओ. सबको नये कपड़े मिलेंगे. और भी जो जरूरत हो बताना. शहर से मंगवा दिया जायेगा. लेकिन कार्यक्रम बढिया होना चाहिए. मेहमानों को भी पता चलना चाहिए कि आदिवासी संस्कृति क्या होती है. क्यों?
बुधनी (हुंकार भरती है)  : हूं...काका से पूछूंगी
ठेकेदार  : सालखन यही बैठे हैं. क्यों सालखन?
(सलखन खामोश रहता है.)
साहब  : गांव के स्कूल की टीचर तुम सबों को ले जायेगी. दो दिन अभ्यास कर लो. तीसरे दिन कार्यक्रम है... तो मुंडाजी, हम लोग चलते हैं.
(साहब और ठेकेदार चल पड़ते हैं.)
साहब (ठेकेदार से धीमे स्वर में)  : तुम्हारा सालखन क्या करेगा पता नहीं. तुम बुधनी से कहो कि उसकी नौकरी पक्की कर दी जायेगी.  न हो तो तुम उसे किसी तरह मेरे दफ्तर में ले आओ. मैं समझा दूंगा.’ 

दृश्य-चार
(वही मंच, लेकिन मंच के दाहिने एक कम उंचाई का स्टेज, जिस पर एक डायस और माईक. बगल में एक की बोर्ड. सामने स्क्रीन पर बने कुछ मान चित्र आदि. प्रकाश के एक वृत्त में प्रकट होता है सूत्रधार. दीवार पर लटके मानचित्र को गौर से देखता रहता है. उस की पीठ दर्शकों के तरफ है.)
सूत्रधार : अभी तक
सिर में तड़फड़ाता रहा ब्रह्मांड,
लड़खड़ाती दुनियां का भूरा मानचित्र
चमकता है दर्दभरे अंधेरे में वह
क्रमागत कांड.
उसमें नये नये सवालों की झकमार;
थके हुए, गिरते-पड़ते, बढने का दौर;
मार-काट करती हुई सदियों की चीख;
मुठभेड़ करते हुए स्वार्थों के बीच
भोले भाले लोगों के माथों पर घाव...
(मुक्तिबोध की कविता का एक अंश, सस्वर बोल कर सामने मुड़ता है.)
सूत्रधार  : मेरी समझ में नहीं आती बात कि नेहरु चाचा को जब बच्चे इतने प्यारे थे तो करोड़ों बच्चे भूखे, नंगे और कुपोषण के शिकार क्यों हैं देश में? इसलिए मैं फरेब में नहीं आता, लेकिन हमारी बुधनी उनके फरेब में आ गई. दोष उसका नहीं था. उस दौर का था. सदियों की गुलामी की जंजीरे तोड़ कर देश आजाद हुआ था. सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के रूप में पूरी दुनियां में उसकी प्रतिष्ठा थी. झारखंड में सार्वजनिक क्षेत्र में नये नये कल कारखाने लग रहे थे. थोड़ी दुविधा के बावजूद आदिवासी जनता भी विकास के इस दौर के साथ थी. गांव के मुंडा सालखन की खामोशी को बुधनी ने मौन सहमती समझा. वह और उसके साथी उत्साह से प्रधानमंत्री के स्वागत समारोह की तैयारियों में जुट गये. साहब ने बुधनी को अपने कक्ष में बुला कर यह भी आश्वासन दिया था कि उसकी नौकरी परमानिंट हो जायेगी. वह मगन थी, यह सोच कर कि अब उसके घर का दारिद्रय दूर हो जायेगा. वह अपने काड़ा के गले के लिए घंटिया खरीद पायेगी. बाप के लिए अंगोछा और मां के लिए नई साड़ी. आखिरकार डैम के उद्घाटन का ऐतिहासिक क्षण आ गया. प्रधानमंत्री के मंच पर आते ही स्वागत गीत-नृत्य हुआ और फिर पुकार हुई बुधनी की...
(सूत्रधार प्रकाशवृत्त के साथ मंच से हट जाता है. मंच पर लगी कुर्सियों पर प्रधानमंत्री सहित कुछ नेता हुक्मरान बैठे हैं. मंच के सामने कुछ लड़के-लड़कियां एक स्वागत गीत और नृत्य प्रस्तुत करती हैं. समाप्ति पर सभी ताली बजाते हैं. फिर एक अधिकारी माईक पर आता है.)
साहबः अब बुधनी मझियायिन आ कर हमारे प्यारे प्रधानमंत्रीजी को माला पहना कर स्वागत करेंगी.
(नाच-टोली से निकल कर बुधनी और रोबन मंच की तरफ बढते हैं. मंच के किनारे खड़े अधिकारी रोबन को रोक देते हैं. मंच की तरफ बढती बुधनी को थमा दिया जाता है गेंदे फूल की एक माला. बुधनी कुछ पल के लिए ठिठक जाती है, असमंजस की स्थिति में खड़ी रह जाती है, फिर मंच पर चढ जाती है.
उसे अपनी तरफ आते देख प्रधानमंत्री मुस्कुराते हुए खड़े हो जाते हैं. बुधनी आगे बढ कर माला उनके गले में डाल देती है और वापस लौटने लगती है.)
प्रधानमंत्री पीछे से आवाज देते हैं : ठहरो बुधनी..
(फिर माईक के सामने पहुच जाते हैं. कुछ पल सामने बैठी जनता को देखते हैं और फिर बोलने लगते हैं.)               
प्रधानमंत्री : ये डैम, ये कल कारखाने आधुनिक भारत के मंदिर हैं जहां से ज्ञान की रौशनी फूटेगी, समृद्धि के द्वार खुलेंगे. आदिवासीबहुल इस इलाके में डीवीसी की यह चैथी और अंतिम इकाई है. इन डैमों में संचित पानी से इस इलाके में हरित क्रांति होगी. जहां एक फसल होता था, वहां तीन तीन फसले होंगी. साथ ही यहां बन रहे पावर स्टेशनों से उन सुदूर ग्रामीण इलाकों में भी रौशनी पहुंचेगी जहां आज तक आदिम अंधकार का साम्राज्य था. मैं चाहता हूं कि आज इस पावर प्लांट का उद्घाटन युवा भारत की युवा लड़की बुधनी करे...आओ बुधनी...
(कंधे पर हाथ रख बुधनी को मंच पर एक टेबल पर रखे की बोर्ड के पास ले जाते हैं. उन दोनों के थोड़े पीछे हैं साहब.)
..इस बटन को दबाओ.
(बुधनी पूरे विश्वास से उस बटन को दबाती है. पर्दे के पीछे लगे ढेर सारे बल्ब एक साथ जल उठते हैं. कही दूर गड़गड़ाहट के साथ पानी के उंचाई से गिरने और वेग से निकलने की आवाज, नगाड़ा और तुहड़ी बज उठती है. उस भीषण शोर के बीच दर्शकों की तरफ हाथ हिलाते हुए और एक बार बुधनी की पीठ थपथपा कर प्रधानमंत्री व उनका काफिला मंच से उतर कर विलुप्त हो जाता है. मंच पर रह जाती है बुधनी, कौतुक से पर्दे के पीछे जलते बुझते बल्बों को निहारती.)

दृश्य- 5     
(वही मंच. स्टेज हट गया है. शाम ढलने के बाद का वक्त. लालटेन की धीमी पीली रौशनी. घर के बाहर के मुंडेर पर, पेड़ के नीचे, अगल बगल, दो-तीन की संख्या में खड़े बैठे लोग. आपस में फुसफुसाते. घर के दरवाजे के सामने बैठे बुधनी के माता पिता. सर झुका हुआ. तनावपूर्ण वातावरण.)
पेड़ के नीचे बैठा सालखन : क्यों रे रोबन, बुधनी नहीं आई?
रोबन : नहीं, साहब ने रोक लिया. आती होगी.
सोलखन : क्यों?
रोबन : पक्की नौकरी देने के लिए.
सालखन : स्वागत समिति में तो तू भी था.
रोबन : मुझे क्यों देने लगे नौकरी? मैं छोकरी हूं? जवान हूं?
सालखन गरज पड़ता हैः चोप. तुझे शर्म नहीं आती यह सब बोलते.
(रोबन सहम जाता है. आपस में फुसफुसाते लोग खामोश हो जाते हैं. दूसरी तरफ से प्रसंन्न मुद्रा में बुधनी का प्रवेश. लोगों की उपस्थिति से अंजान अपने घर की तरफ बढती है.)
सलखनः रुक जा बुधनी. कहां जा रही है?
(बुधनी थम जाती है. हत्बुध हो, नजर घुमा चारो तरफ देखती है.)
बुधनीः अ..अपने घर और कहां?
सालखन : तू अब उस घर में नहीं जा सकती. इस गांव में नहीं रह सकती.
बुधनीः आपु (पिता) यह कैसी बात. उमा (मां) क्या कह रहे हैं काकू?
पिताः हां, बेटी. पंचों का यही फैसला है.
बुधनी ( सालखन की तरफ मुड़ कर) : काका, मेरा अपराध क्या है? मैंने किया क्या है?
सालखन (गंभीर स्वर में) : तूने अनजान आदमी के गले में वरमाल डाल कर उसका वरण किया है. इस अपराध के लिए गांव निकाला का दंड दिया जाता है. तू इसी वक्त यहां से निकल जा.
बुधनी (आश्चर्य से पूछती है) : मैं ने किसका वरण किया? क्या कह रहे हैं काकू?
भगत : सबो ने देखा. तू मंच पर गई. परधानमंत्री को माला पहनाया. अब तू उसके पास ही जा. कौन करेगा अब तुझसे ब्याह? नहीं रह सकती तू इस गांव में.
बुधनी (दांतों से जीभ काट लेती है) : छी छी... वह बाप समान आदमी मेरा पति?
सालखन (तेज स्वर में) : छी छी क्या कर रही है. बाप समान विजातीय आदमी के गले में वरमाल डालते शर्म नहीं आई? निकल यहां से, नही तो केश मूड़ कर चेहरे पर कालिख मल कर गांव के बाहर कर दिया जायेगा तुम्हे.
(बुधनी पछाड़ खा कर गिरती है जमीन पर. रोती कलपती है. फिर उठ कर तेजी से मां के पास जाती है. लिपट कर बोलती है.)
बुधनी : हे मां, तू तो कहती थी
            लड़के का जन्म हुआ
            गोहार घर उजड़ गया
            गोहार घर उजड़ गया.
            लड़की का जन्म हुआ
            गोहार घर भर गया
            गोहार घर भर गया
और अब मुझे घर से निकाल रही है.
(मां काठ सी खड़ी रहती है. बुधनी उसे छोड़ वही खड़े पिता के चरणों से लिपट जाती)
बुधनी (चित्कार करती है) : आपु, देखो मेरी तरफ. मै तेरी लाड़ली, कहां जाउंगी इस भीषण रात्रि बेला में. तुम दोनों के सिवा मेरा इस दुनियां में है कौन? मुझ अकेली को जंगल में डर लगता है आपु. करैत सांप को देख कर दहल जाता है तन. खुंखार जानवर से डर लगता है. पराये लोगों से कांपता है मेरा कलेजा.
पिता (भरे गले से) : मैं गांव समाज फैसले के बाहर नहीं जा सकता बिटिया. जैसे पानी बिन मछली नहीं रह सकती, वैसे ही गांव-समाज के बिना हम नहीं रह सकते. तुझे जाना होगा. हमारा तुझसे अब कोई नाता नहीं.
(मुंह फेर लेता है. बुधनी पिता के चरणों से उठ कर पास खड़ी हम उम्र एक लड़की के पास जाती है, उसका हाथ पकड़ लेती है.)
बुधनी : तू मेरे बचपन की सहेली. हम साथ साथ बढ़े, खेले. जंगल में लकड़ी बीनने, महुआ चुनने हम साथ-साथ जाते हैं. आपस में ठिठोली करते हैं. ताल-तिलैया में साथ -साथ नहाते हैं. बस आज रात तू अपने घर के आंगन में सोने दे बहना. पौ फटने के पहले मैं चली जाउंगी.
(सहेली कुछ नही बोलती. धीरे से अपना हाथ छुड़ा लेती है. बुधनी मंच के बीच में आ जाती है. आंचल से अपने आंसू पोंछती है. जलती आंखों से अपने चारो तरफ निःस्तब्ध खड़े लोगों को देखती है और क्रोधित स्वर में बोलती है)
बुधनीः धिक्कार है उस गांव पर, उस समाज पर जो अपनी निरपराध बेटी को सजा देता है. मैं जाती हूं लेकिन कहे जात हूं, इस गांव का नाश हो जायेगा. धिक्कार है. धिक्कार है. धिक्क......
(बुधती धीमी गति से मंच से निकल नेपत्थ में चली जाती है. उसके जाने के साथ छा जाता है मंच पर अंधकार.)

दृश्य-6
(दिन निकल आया है. कैंप कार्यालय में हलचल शुरु हो गई है. साहब के कार्यालय के बरामदे के एक कोन में लुढकी पड़ी है एक औरत. चेहरा नहीं दिख रहा. अस्त-व्यस्त हालत. दूर खड़े कुछ लोग बोल बतिया रहै हैं.)
एक तमाशबीन : देखो बेशर्म को, कैसे निढाल पड़ी है
दूसरा तमाशबीनः पी लिया होगा रात में दारु..
तीसरा तमाशबीन : जाओ भाई..यह तो एक आम नजारा है. होश में आने पर खुद चली जायेगी उठ कर.
चौथा तमाशबीन : साले सरकार के दामाद हैं ये विस्थापित. जंगल, झाड़, डुगरी के नाम पर भी हजारों रुपया पाकेट में पहुंचे तो यही होता है हाल...
(दूर जीप रुकने की आवाज. चपरासी फाईल, टिफिन लिये आगे - आगे, पीछे-पीछे साहब. दोनों को देख सामने की भीड़ छंट जाती है. बरामदे में पड़ी औरत को देख कर साहब वितृष्णा से मुंह बनाते हैं. दूर से ही बोल पड़ते हैं.)
साहब : रघुवंशी, देखों कौन पड़ी है. हटाओ वहां से.
(रघुवंशी तेज कदमों से आगे बढता है. फाईल आदि बरामदे में पड़ी बेंच पर रखता है. करीब जाता है. चैंक कर एक कदम पीछे हट जाता है.)
रघुवंशी : ..बुधनी.. यह तो बुधनी है साहब. कल जिसने प्रधानमंत्री जी को माला पहनाया था.
साहबः है..उठाओ उसे
रघुवंशी (बुधनी के करीब जा कर आवाज देता है)- अरी ओ बुधनी, उठ. क्यों पड़ी है यहां.
(उसके बदन को हल्के से थपथपाता है. बुधनी हड़बड़ा कर आंखे खोलती है. साहब को अपनी तरफ अपलक निहारते देख लज्जा से दोहरी हो जाती है. अपनी साड़ी को बदन से लपेट लेती है. उठ खड़ी होती है.)
रघुवंशी : हडि़या चढा लिया...
बुधनी : नहीं.
साहब : फिर यहां क्यों पड़ी है, क्या हुआ, कल गांव नहीं गई?
(बुधनी खामोश रहती है.)
साहब : बोलती क्यों नहीं. घर में सब तुम्हारी चिंता करते होगें?
बुधनी : किसी को नहीं चिंता.
साहब : क्यों ऐसा बोल रही हो.
(हाथ बढाते है कपोल छूने के लिए, फिर ठहर जाते हैं.)
दरवाजा खोलो. भीतर चल कर बात करते हैं.
(रघुवंशी दरवाजा खोलता है. फाईलों को अंदर ले जाता है. साहब बुधनी की पीठ पर हाथ रख कर उसे भीतर ले जाते हैं. कुर्सी पर बैठ जाते हैं. रघुवंशी फाईलों को टेबल पर रख कर बाहर निकल आता है बुधनी को सामने की कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हैं.)
साहबः अब बोलों, क्या बात है?
बुधनी (शून्य में देखते हुए) : मुझे घर गांव से निकाल दिया.
साहबः क्या कहा? तुम्हें घर से निकाल दिया? मगर क्यों?
बुधनी : मैं ने माला जो पहनाई. कहते हैं, वही तेरा आदमी. उसके पास जा. (रो पड़ती है..)         
रात पर भटकती रही. कहां जाती. यही बाहर बरामदे में बैठी रही. कब नींद आ गई पता नहीं.
(साहब हतप्रभ रह जाते हैं. फिर चोर निगाहों से निहारने लगते हैं बुधनी की काया को.)
बुधनीः आपने कहा था पक्की नौकरी मिलेगी मुझे.
साहबः हां, मिलेगी. लेकिन तू रहेगी कहां? ऐसा कर, तू मेरे डेरे पर रह. अकेले रहता हूं परदेश में. कोई देख भाल करने वाला नहीं.मेरे घर का काम काज कर दिया कर.
बुधनी : नहीं.
साहब : देख बुधनी, मैं बुरा आदमी नहीं. रोज स्नान ध्यान करता हूं. शराब नहीं पीता. तुझ पर दया आती है, इसलिए कहता हूं. मेरा अपना कोई स्वार्थ नहीं.
बुधनी : नहीं.
साहब (समझाने वाले स्वर में) : कहां मारी फिरेगी तू इस कच्ची उमर में. जमाना बहुत बुरा है.
बुधनीः नहीं.
साहब : तो जा मर.
बुधनी : मेरी नौकरी?
साहबः फाईल आने दे उपर से. मिल जायेगी नौकरी.
(बुधनी बाहर निकलने लगती है. साहब तृषित निगाहों से उसे निहारते रह जाते हैं.)

दृश्य-सात
(शाम का वक्त. बुधनी की नीले कोर वाली साड़ी मैली हो चुकी है. कमर से लिपटा है अंगोछा. पैसा गिनते वह मंच पर बने बाजार में आती है. समीप के एक होटल के सामने रुक कर भूखी निगाहों से मर्तबान, परात आदि में रखे खाद्य सामग्रियों को देखती है.)
दुकानदार (लापरवाही से) : कुछ चाहिए?
बुधनी : मूढी और पकौड़ी. चाय भी
दुकानदार : निकाल अठन्नी. (बुधनी पैसा उसकी तरफ बढा देती है.) जा, उधर बैठ जा.
(बुधनी मूढी खाती है. पानी पीती है और फिर चाय भी. असमंजस में बेंच से उठ जाती है. कुछ लोग उसे देख रहे हैं. वह बिना उनकी तरफ देखे दुकान से आगे बढ जाती है. बगल में एक दुकानार लोहे से बने सामान बेच रहा है. ताबा, कलछुन, खुरपी, चाकू, खुरपी, हंसुली आदि.)
बुधनी (हंसुली उठा लेती है)  : कितना दाम?
दुकानदारः सवा रुपये?
बुधनी : बारह आने में दोगे?’
(दुकानदार हामी भरता है.)
दुकानदारः क्या करेगी इसका?’
(बुधनी हंसती है.)
बुधनी  :जनावर मारूंगी..
(हंसुली को कमर में खोंस कर बुधनी आगे बढती है. एक यात्री सेड को देख उधर मुड़ जाती है. कोने में एक झाडू पड़ा है. उसे उठा लेती है. यात्री सेड को साफ कर बैठ जाती है सीमेंट के बेंच पर. इक्का दुक्का गरीब गुरबा और जमा हो जाते हैं. कुछ हल्के नशे में हैं..)
एक प्रौढ ग्रामीण : किस गांव की हो बिटिया?
बुधनी : कोलेबेड़ा की.
ग्रामीण : गांव नहीं गई?
बुधनी : गांव से निकाल दिया.
ग्रामीण  :क्यों?’
बुधनी  :बिधर्मी से ब्याह करने के कारण.
ग्रामीण  : किससे ब्याह कर लिया?’
बुधनी (हंस पड़ती है) : परधानमंत्री से.
ग्रामीण  : धुत पगली
बुधनी  : मेरी बात छोड़ो बाबा, तुम घर क्यों नहीं गये.
ग्रामीण  : घर? कहां रहा घर? गांव तो डूब में समा गया. धीरे-धीरे पानी चढता गया. सब तितर बितर हो गये. इधर रोड बन रहा है तो चला आया. रात जहां जगह मिलता है पड़ रहता हूं. ये सभी ऐसे ही लोग हैं. कुछ को मुआवजा मिलना है. यही कैंप कार्यालय के चक्कर लगाते रहते हैं.
एक औरत : तुम डरियों मत. हम है तुम्हरे साथ.
बुधनी : मैं नहीं डरती मौसी. यह देखो.
(कमर से हंसुली निकाल कर चमकाती है. सब हंस पड़ते हैं. एक लड़का आस पास से लकड़ी के टुकड़े चुन कर ले आता है. कुछ पुराने अखबार, झाड़-झंकार. उसे सुलगा लिया जाता है. आग के चारों तरफ बैठ जाते हैं सभी..)
क्या-क्या सपने दिखाये थे. बांध के पानी से खेत पटेगा. बिजली से गांव गांव में रौशनी होगी. सब झूठ
मुआवजा मिला न?’
लड़का : कहां मिला मुआवजा? अमीन बोला, हमारा गांव नक्शे में नहीं. वन क्षेत्र में बसा है हमारा गांव. उसका कोई मुआवजा नहीं.माईक से एक दिन प्रचार कर दिया-चैबीस घंटे में घर खाली कर दो, पानी आने वाला है. जान माल की हानि के लिए सरकार जिम्मेदार नहीं.हमनी को लगा कि मजाक हो रहा है. ऐसा कैसे हो सकता है? लेकिन हरहराता हुआ पानी नीचे उतरा और चढने लगा. पानी जैसे जैसे चढा, लोग इधर उधर हो गये. देखते देखते डूब में समा गया जाहेर थान, सासेंदरी. खलिहान का उंचा मचान
(थोड़ी देर के लिए सन्नाटा..)
बुधनीः मौसी, तू किस गांव की है? क्या है तेरा हाल?
मौसी : क्या पूछती है हाल. गांव में, अपने घर में रानी थी, अब रास्ते की भिखाड़न बन गई हूं.
बुधनीः तुझे भी मुआवजा नहीं मिला?
मौसी : मिला. 75 पैसे डिसमिल के हिसाब से. कहां टाड़ जमीन की यही कीमत है. उन्हें क्या पता कि उस टाड़ जमीन को हम दोनों ने खून पसीना बहा कर कैसे खेती लायक बनाया था. जो मिला, उसे देख कर बौरा गया तेरा मौसा. डूब में गया अपना घर, जमीन को देख कर आंसू बहाता या दारु की भट्ठी में जा कर बैठा रहता. कितने दिन चलते वह थोड़े से पैसे. अब खटते हैं, खाते हैं. कोई बखेरा नहीं. 
प्रौढः तुम लोगों ने विरोध नहीं किया? (फिर ठंढी सांस भर कर.) विरोध से होता क्या है?
मौसी : विरोध तो किया सबों ने लेकिन बोले-सर्वे की रिपोर्ट देखूं कि तुम्हारी बात सुनूं. कोई नहीं सुनता गरीब की बात. विरोध करो तो डंडा, पुलिस. थाना कचहरी. सब मिल कर हमे मारने पर तुले हैं.
(शराब के नशे में धुत एक कृशकाय व्यक्ति लड़खड़ाते हुए चला आ रहा है. सर्ट नई लेकिन बटन उल्टा पलटा लगा है.)
प्रौढ : लो, फिर पी कर चला आ रहा है मोगरा.
मोगरा (हाथों में नोट की गड्डी है. लहरा कर बोलता है) : किसी से मांग कर नहीं पीता, अपने पैसे की पीता हूं.
प्रौढ़ः ठीक है मोगरा. लेकिन इस तरह लुटायेगा तो कितने दिन चलेगा? फिर इस तरह नोटों के बंडल लेकर कोई घूमता है? कोई छीन-झपट ले तो क्या करेगा?
मोगरा : कौन साला छीनेगा.
(धप से वही बैठ जाता है.)
अच्छा दादा, इसका मैं करूं क्या? रोज दारू पीता हूं. मांछ-भात खाता हूं, लेकिन खतम ही नहीं होता. यह देखों नई कमीज, नया पैंट. अब और क्या करूं?
बुधनी : तू कही और जमीन खरीद सकता है?
मोगरा (भड़क जाता है) : चुप साली. बित्ता भर की छोकरी मुझे बतायेगी? जमीन कही हाट में बिकता है कि गये और खरीद लिया?. हमारे गांव में तो किसी ने नहीं खरीदी थी. सबके बाप दादों ने जंगल काट कर जमीन बनाई. खेती लायक मिट्टी तैयार किया. हमने भी डुंगरी को साफ कर पिछवाड़े में जमीन बनाई थी.
बुधनी : तुझे तो सरकार नौकरी भी देगी?
(हंसता है मोगरा.)
मोगरा :नौकरी? साहब बोला, पढा लिखा है? मैं बोला नहीं. साहब बोला क्या कर सकता है? मैं बोला मिट्टी काटूंगा साहब. साहब बोला काम नहीं. पहले तुमको टरेनिंग देंगे. फिर देंगे काम.
बुधनी : तब तक का करेगा?
मोगरा : तब तक. क्या करूंगा? खेत नहीं, पठार नहीं. क्या करना है? हां! पैसा है. मजा करूंगा. (रूक कर) तुझसे ब्याह करूंगा. चलेगी मेरे घर?
बुधनी : तेरा मुंह न नोंच  लूं?’
(मोगरा उठ खड़ा होता है और उस पर झपटता है.)
मोगरा : मेरा मुंह नोचेगी?’
(बुधनी के हाथों में चमक उठती है हंसुली. मोगरा को धक्का देती है)
बुधनी : खबरदार
(आवेग और भय से थरथर कांप रहा है उसका बदन. सभी हो हो कर उठते हैं.)

दृश्य - आठ
(सुबह का समय. यात्री शेड के सामने बड़ी संख्या में जुटे है मजूर. रेजा, कुली. कुछ के हाथ में फावड़ा, कुदाल. कुछ के हाथ में करनी और प्लास्टर समतल करने वाला लकड़ी का टुकड़ा आदि.आदि. आपस में बतियाते, चाय की चुस्की लेते. भीड़ में बुधनी भी)
चाय दुकान के सामने खड़ा एक भद्र व्यक्ति : जब से डैम बना है, मजूरों की यह मंडी बड़ी होती जा रही है. क्या करें लोग? खेती बाड़ी रही नहीं. जो पैसा मिला हजम. कोई रिक्शा खींचता है. कोई ठेला, ज्यादातर तो दिहाड़ी मजूर बन.
चाय दुकानदार : हमे क्या करना? हमारी तो बिक्री बढ गई. सुबह शाम जमा होते हैं लोग. कुछ रौनक रहती है.
(एक साईकल सवार आ कर मजदूरों की भीड़ के सामने आ कर रुकता है)
का हो, पोचारा करने वाला कोई है?’
हां, हम करेंगे. कितना बड़ा घर है.
तुम्हें क्या लेना देना उससे. ठेके पर काम नहीं कराना. दिहाड़ी पर करायेंगे. जै दिन लगे. का मजूरी लोगे?‘
रेजा 15 रुपये, मिस्त्री 30 रुपये रोज.
आदमी चिढ कर : गांव में चार पैला धान पर खटते थे, अब 30 रुपये मजूरी चाहिए. एक मिस्त्री और एक रेजा चाहिए. 25 रुपये रोज देंगे. चलना है तो चलो वरना यही बैठे रहो. बहुत है काम करने वाले.
मजूर ऐंठ कर : हम तो नहीं जायेंगे. और देख लो.
एक दूसरा मजूर एक रेजा सेः क्या कहती हो, चलोगी?
(दोनों तैयार हो जाते हैं.)
पहला मजूर शिकायती लहजे में : तुम लोग मजूरी बिगाड़ देते हो.
जाने वाला मजूर सकपकाये स्वर में : का करें भाई. मजबूरी है. कई दिन से यहां से लौट रहे हैं. घर में खाने को दाना नहीं. खुद भूखे पेट रह सकते हैं. बाल बच्चों की भूख नहीं देखी जाती.
(दोनों साईकल सवार के पीछे-पीछे चले जाते हैं. मजूर के तलाश में दूसरा आदमी आता है)
चबुतरा बनाना है. कौन चलेगा?’
बुधनी (आगे बढ कर) : कहां चलना है?
वह आदमी गौर से उसकी तरफ देखता है : तू करेगी राज मिस्त्री का काम. तेरा आदमी कहां हैं?
(बुधनी मौन).
(एक पछियाहा)
हम है राज मिस्त्री. बोलों कहां चलना है? लेकिन मजूरी होगी 30 रुपये और रेजा का 15 रुपये.
वह आदमी कुछ देर विचार करता है.
अच्छा चलो.
पछियाहा बुधनी से : चल.
(बुधनी कुछ पल असमंजस में रहती है, फिर साथ साथ चल देती है. दोनों मंच से बाहर हो जाते हैं. मंच की गतिविधियां थम जाती हैं. दिन चढता है. फिर शाम होती है. फिर अंधकार. दुकान के सामने छप्पड़ से लटका लालटेन जल उठता है. मंच के दूसरी तरफ से बुधनी और राज मिस्त्री का प्रवेश. बुधनी यात्री शेड के सामने रुक जाती है.)
राज मिस्त्रीः तू यही रुकेगी? घर नहीं जायेगी?
बुधनी : मेरा कोई घर द्वार नहीं. यही रात में सोती हूं.
राज मिस्त्री, सहानुभूति से : दिन भर साथ रही. तेरा नाम भी नहीं पूछा. किस गांव की हो यह भी नही जाना.
बुधनी : क्या करेगा यह सब जान कर. तुम्हारा नाम क्या है?
राज मिस्त्री : मेरा नाम तो रघुनाथ है. भागलपुर से आया था. पता चला था कि बड़ा डैम बना हैं. प्लांट लगा है. लेकिन काम नहीं मिला. पढना लिखना सब बेकार. अब राज मिस्त्री का काम करता हूं. कालोनी के पास एक खोली में रहता हूं. तुम्हारा नाम?
बुधनी.
और गांव
क्या फायदा. गांव वालों ने निकाल दिया. अब हमारा कोई वास्ता नहीं उस गांव से.
रघुनाथ : तूने ऐसा किया क्या?
बुधनी : बिधर्मी से ब्याह कर लिया.
रघुनाथ : और तेरा आदमी?
बुधनी हंसती है : मेरा आदमी तो परधानमंत्री है.
रघुनाथ : क्या बकती है? दिमाग तो खराब नहीं हो गया तुम्हारा?
बुधनी : मेरा दिमाग. गांव वाले तो यही कहते हैं. मैं ने परधान मंत्री को माला पहनाया, इसलिए वह मेरा पति हुआ. हुआ की नहीं?
रघुनाथ विस्फरित आंखों से उसे देखता रह जाता है, फिर कहता है : ओ हो. तो तू है. वही तो मैं कहता था कि पहले कहां देखा तुम्हें. तो, प्लांट के उद्घाटन के दिन तुमने ही पहनाया था प्रधानमंत्री को माला. तेरी तो फोटो भी छपी थी अखबारों में. क्या दिखती थी तू. कलाई में कड़े और ढेर सारी चूडि़यां, कानों में कर्णफूल और जूड़े में सफेद फूल..वह सब कहां गया?
बुधनी की आंखें डबडबा जाती है :  मत पूछो.
रघुनाथ : बड़े निष्ठुर हैं तेरे मां बाप. तेरे गांव जवार के लोग. फूल जैसी बेटी को घर से निकाल दिया.
बुधनी : मेरे गांव घर को बुरा भला मत कहो. मेरे मां बाप तो बहुत प्यार करते हैं मुझे.
रघुनाथ : तो घर से निकाला क्यों?
बुधनी : हमारे यहां का दस्तूर.
रघुनाथः तुझे तो नौकरी मिलने वाली थी?
बुधनी : साहब कहता है फाईल उपर से आयेगा. पता नहीं कब आयेगा?
रघुनाथ : मैं बात करूंगा साहब से, तू मेरे साथ चल.
बुधनी : कहां?
रघुनाथ : मेरी खोली में और कहां.?
बुधनी : तो तू भी साहब जैसा ही है. वह भी तो यही चाहता था?
रघुनाथ : नहीं बुधनी नहीं. तू खोली में रहना. मैं बरामदे में सो जाउंगा. -रुक कर- तेरी मर्जी के बगैर तुझे हाथ नहीं लगाउंगा. दोनों साथ साथ काम करेंगे. तेरे नौकरी की भी बात करूंगा.
बुधनी हंस कर : तू दिकू है.
(दोनों हथेलियों में बुधनी का चेहरा भर कर)       
रघुनाथ : खटने - खाने वालों की कोई जात नहीं होती बुधनी.
(बुधनी की हथेली कमर में खुंसी हंसुली पर जाती है, फिर ढीली पड़ जाती है.)

दृश्य नौ
(वही पुराना कैंप कार्यालय. गहमा गहमी. चाय की दुकान. या़त्री शेड. बाजार का विहंगम दृश्य. एक तरफ से बुधनी और रघुनाथ चले आ रहे हैं. बुधनी के हाथ में है गमला. रघुनाथ के हाथ में सूत से लटकता लेवल नापने वाला भार, करनी आदि. दोनों कुछ बतियाते मंच पर प्रवेश करते हैं. कैंप कार्यालय के सामने पहंच कर ठिठक जाता है रघुनाथ)
रघुनाथः रुक बुधनी. साहब लगता है अपने कमरे में हैं.
बुधनी : तुझे कैसे पता? चल काम को देरी हो रही है.
रघुनाथ : वह चपरासी बाहर स्टूल पर बैठा है. माने साहब अंदर. चल कर बात करते हैं तेरी नौकरी के बारे में.
बुधनी : नहीं. मुझसे नहीं होगा.
रघुनाथः डर मत. तू चल कर पूछ, तेरी फाईल आई की नहीं. बाकी मैं सब संभाल लूंगा.
बुधनी : तू क्या कर लेगा?
रघुनाथ : तू देखती तो जा.
(दोनों झिझकते हुए साहब के कमरे की तरफ जाते हैं. स्टूल पर बैठा रघुवंशी बुधनी को देख कर मुस्कुराता है. बुधनी गमला कोने में टिका देती है. रघुनाथ भी करनी और हाथ का अन्य सामान गमले में रख देता है)
रघुवंशी : तू फिर आ गई? बड़ा काईया है साहब. सबको चक्कर लगवाता है. छोटे से छोटे काम के बदले पैसे लेता है या बेगार करवाता है अपने घर में.
बुधनी : एक बार साहब से मिल कर पूछ लूं.
रघुवंशी : मिल ले. यह कौन है तेरे साथ?
बुधनी : राज मिस्त्री है. साथ काम करते हैं हम दोनों.
रघुवंशी : मैं टहल आता हूं जरा. तू मिल ले.
(रघुवंशी हाथ झाड़ते हुए उठ खड़ा होता है और चाय की दुकान की तरफ बढ जाता है. बुधनी और रघुनाथ दोनों भीतर घुस जाते हैं. साहब सामने बैठे बड़ा बाबू को कुछ समझा रहे हैं. बुधनी और रघुनाथ को देख कर थोड़ा हड़बड़ा जाते हैं. लेकिन उसे अनदेखा कर बउ़ा बाबू से बोलते रहते हैं)
साहब : दो तरह की सूची बनाईये. एक, जिसका घर जमीन दोनों गया. दूसरा, जिसका सिर्फ घर गया. पहले नौकरी उसको दिया जायेगा जिसका घर जमीन दोनों गया. वह भी जैसे जैसे वेकेंसी होगी.
(फिर बुधनी की तरफ मुखातिब होकर)        
साहब : कैसी हो बुधनी. तेरी फाईल अब तक नहीं आई है. आते ही खबर करूंगा.
बुधनी हंस कर : कहां खबर करेंगे साहब. मेरा तो न घर, न द्वार, इसीलिए खुद चली आई पूछने.
साहब : बस दो चार दिन और ठहर जा.
रघुनाथ : अब यह नहीं आयेगी साहब. हम ही किसी तरह दिल्ली जाने का जोगाड़ बैठाते हैं. पूछेंगे वहां जा कर कि प्रधानमंत्री के आश्वासन का क्या हुआ. या फिर शहर जाकर अखबार वालों से मिलते हैं.
साहब तैश में : तुम कौन हो जी. अंदर कैसे आये. रघुवंशी. कहां हो.
(बड़ा बाबू फाईल समेटने लगते हैं.)
रघुनाथ : रघुवंशी चाय पीने गया है. हम भी आपसे लड़ने भिड़ने नहीं आये हैं. बस आपको बताने आये हैं कि हम चुप नहीं रहेंगे. आप लोग इसी तरह आदिवासियों का शोषण करते हैं. पहले सब्जबाग दिखाते हैं और फिर अंगूठा. चल बुधनी.
(दोनों बाहर निकल आते हैं.)
बुधनी : तुम तो बड़े बहादुर निकले. साहब को खूब सुनाया.
रघुनाथ : इसमें बहादुरी की कौनो बात नहीं. हम जैसे लोगों के पास खोने के लिए है क्या री बुधनी!
(दोनों अपने अपने सामान उठा लेते हैं. पीछे से साहब की आवाज आती है.)
ओ बुधनी, रुक. दो दिन बाद आ कर बड़ा बाबू से मिल लेना. तुझे नियुक्ति पत्र मिल जायेगा.
(ठिठक जाते हैं दोनों. बुधनी रघुनाथ का हाथ कस कर पकड़ लेती है.)

दृश्य 10
(मंच पर थोड़ा हेर फेर. नया जीवन शुरु हो रहा है बुधनी का. उस जीवन की विभिन्न छवियों को सांकेतिक रूप में प्रगट करने योग्य उपकरण, नाट्य सज्जा और प्रकाश व्यवस्था. एक - चटाई पर सोयी बुधनी और रघुनाथ. बुधनी उठती है. नर्मी से रघुनाथ का हाथ अपने बदन पड़ से हटाती है. बाहर आकर खड़ी होती है. कुछ पल आकाश को निहारती है. फिर मंच के पीछे गायब हो जाती है.
दो - आंगन के कोने में बने चूल्हे में लकड़ी सुलगाती है. अल्युमिनियम के कटोरे में काली चाय बनाती है. शीशे के ग्लास में चाय लेकर रघुनाथ के सिरहाने खड़ी होती है. उसे आवाज देती है.)
बुधनी : उठो, कब का सबेरा हो गया. चाय लो.
रघुनाथ, जम्हाई लेकर उठता है : तो आज से तू काम पर जायेगी?
बुधनी : मैं वहां करूंगी क्या?
रघुनाथ : बड़ा बाबू बोले हैं, वहां टेबल कुर्सी को साफ करेगी. घड़े में पानी ला कर रखेगी. टेबल पर पड़े कागज पत्तर समेट कर रखेगी. फाईल एक टेबल से दूसरे टेबल पर ले जायेगी. कभी कभी नोटिस, चिट्ठी पतरी लेकर आस पास के गांव जाना पड़ेगा.
बुधनी : बस. यही है काम?
रघुनाथ, खींज कर : तो कम काम है यह. नौ बजे कैंप कार्यालय पहुंच जाना पड़ेगा. शाम पांच बजे तक वहां रहना पड़ेगा.
बुधनी : तुम क्या करोगे?
रघुनाथ : काम की तलाश में निकलूंगा. नहीं मिला तो घर आकर चादर तान कर सोउंगा.
(तीन - बरतन मांजती बुधनी. चावल रांधती बुधनी. चार - कैंप कार्यालय में घडें को कोने में रखती बुधनी. टेबल झाड़ती बुधनी. रद्दी कागज समेटते और उन्हें डस्टबीन में डालती बुधनी. अफसर की डांट सुनती बुधनी. पांच - कार्यलय से घर आती बुधनी. रास्ते में रुक कर सब्जी खरीदती बुधनी. घर को खुला देख खींजती बुधनी. बाहर निकल कर देखती है. बगल में या़त्री सेड में रघुनाथ दोस्तों के साथ तास खेल रहा है. करीब पहुंच कर जरा उंचे आवाज में बोलती है.)
बुधनी : बाहर निकलते हो तो कम से कम दरवाजे का सांकल तो लगा दिया करो. अब उठो.
रघुनाथ : चल, आता हूं. (फिर दोस्तों की तरफ मुखातिब हो कर) दुधारु गाय की लात भी सहनी पड़ती है.
(सब हो हो कर हंस पड़ते हैं.)
एक दोस्त : तुझे ब्याह करने के लिए और कोई नहीं मिली? एक जंगली को घर में ला कर रख लिया है?
रघुनाथ : क्या बुराई है उसमें. कपड़ा धोती है. बर्तन मांजती है. खाना बनाती है दोनों शाम और अब तो कमाने भी लगी है. महरी भी रखता तो उलटे पचास सौ रुपये देने पड़ते.
दूसरा दोस्त : हां, यह तो तूने की अकलमंदी की बात. लेकिन देखता हूं, जब से नौकरी करने लगी है तब से तुझ पर खूब हुकुम चलाती है. ज्यादा पर निकल आया तो उड़ जायेगी.
(रघुनाथ उठ खड़ा होता है. घर की तरफ बढ जाता है. घर में घुसते ही बुधनी पर बरस पड़ता रहै.)
रघुनाथ : देखता हूं बहुत चलने लगी है तेरी जुबान. सांकल लगे न लगे, तेरे बाप का क्या जाने वाला.
बुधनी : बाप का नाम न लो.
(रघुनाथ केश खींच कर पीठ पर कस कर दोहत्तर जमाता है. धक्का देता है. बुधनी आंगन में आकर गिरती है.)
चुप हरामजादी. निकल घर से. पनाह क्या दी, सर पर चढने लगी.
(बुधनी जार जार रोने लगती है. रघुनाथ देखता रहता है उसकी देह को. करीब आकर पीठ पर हाथ रखता है. बाहों में भरने की कोशिश करता है.)
माफ कर दे बुधनी. मुझे गुस्सा आ गया. तू दोस्तों के बीच आकर क्यों बेइज्जती करती है मेरी? ’
बुधनी उठ कर उसके गले से लग जाती है.
मेरे पेट में तेरा बच्चा है. इस हालत में घर से निकाल दोगे तो कहां जाउंगी मैं.
थोड़ी देर के लिए सब कुछ थम जाता है. फिर मंच की रौशनी बुझ जाती है.

दृश्य ग्यारह
(रात का पिछला पहर. खोली से बच्ची के रोने की आवाज.)
रघुनाथ- नींद में कुनमुनाता है- : संभाल अपने पिल्ले को.
बुधनी- बच्ची को गोद में उठ कर छाती से उसका मुंह सटा देती है : इस पर क्यों गुस्सा होते हों, भूख से रो पड़ी.
रघुनाथ नरम पड़ जाता है : कितना समझाया था, बच्चा गिरा दें. अभी हमे औलाद की जरूरत नहीं. अब बच्ची को मेरे सर पर छोड़ कर काम पर जाती है. मुझे भी तो काम पर जाना होता है?
बुधनी : बड़ा आया काम पर जाने वाला. जब से मैं ने काम संभाला है, तू कभी काम करने जाता भी है. दिन भर यार दोस्तों के साथ मारा मारा फिरता है. तास खेलता रहता है.
रघुनाथ समझाने वाले अंदाज में : दिन भर तास खेलता हू? अरे, मैं तो इस जुगत में हूं कि कोई छोटा मोटा धंधा कर लूं.
बुधनी : धंधा करने के नाम पर कितना पैसा उड़ा चुका है तू? कितना समझाया कि हम लोग धंधा करने के लिए नहीं बने. अच्छा, इस बच्ची से ना तुझे परेशानी है? आज से मैं इसे अपने साथ ले जाउंगी. कर ले काम.
(कंधे पर सो गई बच्ची को बुधनी बिस्तर पर लिटा देती है. उठ कर जाने लगती है. रघुनाथ हाथ पकड़ लेता है.)
बुधनी मुस्कुरा कर : इस तरह हर समय घेरे रहोगे तो बच्चा नहीं होगा?
(नरमी से हाथ छुड़ा कर बाहर निकल जाती है)
दृश्यांतर
(कैंप कार्यालय में बच्ची को पीठ पर बांधे बुधनी का प्रवेश)
एक क्लर्क : क्यों री बुधनी, इतने दिन बाद आई है और वह भी बच्ची को पीठ पर बांधे. काम क्या खाक करेगी?
बुधनी : हम सब को आदत होती है ऐसे काम करने की. तुम सबों को कोई शिकायत नहीं होगी.
दूसरा क्लर्क : लेकिन बचिया है बहुत सुंदर. देखो, कैसे टुकुर-टुकुर देख रही है.
तीसरे टेबल पर बैठे बड़ा बाबू : रमेश बाबू, वर्ण शंकर से पैदा हुए बच्चे सुंदर ही होते हैं. -हो हो कर हंसता है-
(बुधनी सर झुकाये झाड़ू-बुहारु में लगी रहती है.)
पहला क्लर्क : बुधनी भी कम सुंदर नहीं.
बड़ा बाबू : सो तो है. साहब तो इसे अपने घर ले जाना चाहते थे. लेकिन यह गई नहीं. एक मिस्त्री के चक्कर में फंस गई.
दूसरा क्लर्क : पहले वाले साहब. बड़े रसिक आदमी थे.
बुधनी, झाडु जमीन पर पटक करः वह जो भी हो, मेरा आदमी है.
बड़ा बाबू : तेरा आदमी! हम सब तेरा आदमी बनना चाहते है. बनायेगी हमे अपना आदमी?
बुधनी : बूढ हो गये बड़ा बाबू, लेकिन लालसा नहीं गई. तेरी बेटी से कोई ऐसी बात करे तो कैसा लगेगा?
बड़ा बाबू आपे से बाहर होकर : चुप बदजात. मेरी बेटी से अपनी तुलना करती है. निकल बाहर.
बुधनी : क्यों निकलू? सरकार ने मुझे नौकरी दी है.
बड़ा बाबू : कैसी नौकरी? जब कैंप कार्यालय ही उठने वाला है यहां से तो फिर कैसी नौकरी. चल भाग.
(बुधनी सर झुकाये बाहर निकल आती है. धीमी गती से चलती हुई अपनी खोली में पहुंचती है. खाट पर बैठ जाती है. कुछ देर में रधुनाथ का प्रवेश)
रघुनाथः क्या हुआ री बुधनी? आज इतनी जल्दी लौट आई.
बुधनी : मुझे नौकरी से निकाल दिया.
रघुनाथ : ऐसे कैसे निकाल सकते हैं. तू ने जरूर कुछ किया होगा?
बुधनी : वे हमारी तुम्हारी खिल्ली उड़ा रहे थे. स..सब के सब हमरा आदमी बनना चाहते थे. मैं ने विरोध किया तो कहा भाग. कैंप कार्यालय उठने वाला है. मेरी नौकरी खतम.
रघुनाथ तैश में : तो अब यहां क्या लेने आई है. चल यहां से भी निकल. नौकरी नहीं रही तो तू अब मेरे किस काम की?
बुधनी खाट से खड़ी हो जाती है, भौंचकः क्या कहते हो.
रघुनाथ, धक्का दे करः चल निकल.
बुधनी मतिशून्य सी : कहां जाउंगी मैं.
रघुनाथ : जहां से आई थी. सड़क पर.
(बुधनी पैर घसीटते हुए बाहर निकलने लगती है.)
रघुनाथ : और अपने पिल्ले को भी ले जा.साली कस्बिन.
(बुधनी बच्चे को गोद में उठाती है और बाहर निकल आती है. पीछे रघुनाथ खोली का दरवाजा जोर से बंद कर देता है. बुधनी कुछ देर दरवाजे के पास खड़ी रहती है. फिर पर्दे के पीछे विलुप्त हो जाती है.)

दृश्यांतर
(वही स्टेज. एक तरफ खोली. दूसरी तरफ होटल और कैंप कार्यालय. बीच में यात्री शेड. ढलती शाम. कैंप कार्यालय से निकल कर जाते लोग. होटल के सामने लटकती लालटेन. वीरानगी. रात को घनीभूत करती झिंगुर की आवाज. एकाध बार सियार के बोलने की आवाज. यात्री शेड पर एक एक कर जमा होते वहीं गुजर बसर करने वाले औरत मर्द.
दूसरी तरफ से नशे में डगमग कदमों से आती बुधनी. पीठ पर बंधा बच्चा. आंचल का एक छोर जमीन पर लोटता हुआ. अपनी खोली की तरफ बढती.)
मौसी, (पीछे से आवाज देती है) : अरी ओ बुधनी.
(बुधनी लौट कर उसके पास आती है. बच्चे को उसके गोद में थमा देती है. फिर खोली की तरफ बढती है. उसके हाथ में हंसुली आ गई है.)
खोली के सामने पहुंच कर बुधनी : अरे ओ रघुवा. निकल बाहर.  हरामी, सुनता नहीं. निकल.
(रघुनाथ खिड़की के फ्रेम में दिखता है. पहचानने की कोशिश करता है. बुधनी एक बार लुढक जाती है. फिर संभल कर उठती है.)
बुधनीः अरे ओ रघुवा. मेरी बेटी पिल्ला तो तू साला कुकुर. -हंसती है- कुकुर नहीं, कुकुर की औलाद.
(रघुनाथ दरवाजा खोल उसकी तरफ झपटता है. बुधनी हंसुआ लहराती है.)
बुधनी : खबरदार. इधर आया तो चीर कर रख दूंगी. हरामी. का कहता था- खटने कमाने वालों की कोई जात नहीं होती? होती है होती है. मैं कहती हूं होती है. सारे सुन लो. खटने खाने वालों की भी जात होती है. यह साला दिकू. नश नश में भरी है मक्कारी. इसके खून में है मक्कारी. मेरी देह चाटता रहा. मेरे पैसे पर मौज मस्ती करता रहा. मेरे हाथ का रांधा खाना रोज खाता रहा. अब कहता है निकल बाहर. मुझे, बुधनी मंझियायिन को कस्बिन कहता है..
अरे ओ रघुनाथ. थूकती हूं तेरे घर पर. आक थू.
(रघनाथ डर कर पीछे हट जाता है. खोली के भीतर जा कर दरवाजा बंद कर लेता है. बुधनी आंचल ठीक करते वापस लौटती है. कैंप कार्यालय के सामने पहुंचती है. मुंह उधर कर उंची आवाज में बोलती है.)
बुधनी : अरे ओ साहब. क्या बोलता था, रोज स्नान करता हूं. पूजा ध्यान करता हूं. नहाने से देह धुलती है, अंतर का कलुष नहीं मिटता.-हंसती है- पूजा ध्यान करता है. आंख तो टिकी रहती है आसमान में उउ़ते गिद्ध की तरह मांस के लोथड़े पर. साला हरामी. अरे ओ बउ़ा बाबू. अपनी बेटी को ढक-तोप कर रखते हो और हमारी बगली में झांकते रहते हो.
मौसी : अरी ओ बुधनी. कोई नहीं है वहां. लौट आ बेटी.
बुधनी : कोई नहीं.-आंख मलती है- सब हमारी छाती पर बैठे है. तुझे दिखता नहीं. विकास करेंगे साले. सब कुछ छीन लिया. घर द्वार. आंगन जैसी गांव की कच्ची सड़क. हमारा अखड़ा. हमारे जाहेर थान. कुछ तो नहीं रहा.
अरे हो साहब. कहां हो. हमे नहीं चाहिए तुम्हारा लाल कार्ड. तुम्हारा स्कूल, डिसपेंसरी. बस अपनी बीमारी हमे न दो. अपना लालच.हवस हमे न दो. क्या कहते थे नौकरी देंगे. पुर्नवास करेंगे. साले हरामी. हरामी की औलाद. सैकड़ों गांव उजाड़ दिये. लाखों को बेघर कर दिया. एक भी गांव बसाया हो तो बताओ. बताओ एक भी गांव जहां हमारा अखड़ा हो, जाहेर थान हो. हमारे जंगल और पहाड़ हो.
 (गिरने लगती है. मौसी करीब आकर संभाल लेती है.)
मौसी : चुप कर बेटी. किसके सामने यह सब बोल रही है? यह तो बाजार है. यहां कोई नहीं सुनता किसी की. .
बुधनीः हां..  हां..-अनमनी सी - मैं अपने गांव जाउंगी मौसी. अपने गांव. बाजार में हम नहीं रह सकते.. 
मौसी उसे वापस लाते हुए : अब गांव जा कर क्या करेगी. वहां तुझे कोई घुसने देगा भला.
बुधनी : न  न मौसी. मैं रहने नहीं जाउंगी. मैं एक बार देखना चाहती हूं पेड़ों के झुरमुठ से घिरा अपना गांव. अपना अखड़ा. बगल से बहती नदी जिसमें निरापद हो कर मैं नहाती थी. दो साल हो गये ठीक से नहाये. हर समय लगता है सैकड़ों आंखें घूर रही है मेरी देह को.
(थोड़ा रुक कर)
बुधनी : और मौसी मुझे बापू से एक बात कहनी है. सालखन काका से भी...  बेटी को घर से निकालने के बजाये उसकी बलि दे दिया करे..  .

(मौसी के अंक में बुधनी. थम गये दृश्य. लुप्त होती बची खुची रौशनी. पर्दा गिरता है. पटाक्षेप.)

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