रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शनिवार, 24 मार्च 2012

हमारे समय की विसगंतियों का दस्तावेज : मोटेराम का सत्याग्रह


मोटेराम का सत्याग्रह नाटक का एक दृश्य 
राजेश चन्द्र का आलेख 
एक साहित्यकार के रूप में प्रेमचंद की महानता भारतीय जनता द्वारा चलाए जा रहे बहुआयामी संघर्षों के साथ उनकी अंतरंगता पर आधारित है। प्रेमचंद इस संघर्ष के एक तटस्थ दृष्टा भर नहीं थे, बल्कि अपने राजनीतिक-साहित्यिक लेखन के जरिए उन्होंने इस संघर्ष के हर चरण में सक्रिय भागीदारी निभाई थी। मानवता के प्रति गहरे प्यार और जीवन के प्रति विश्वास ने ही प्रेमचंद को दृष्टि की वह व्यापकता दी जिसके दम पर वे इतना समृद्ध, बहुरंगी और वैविध्यपूर्ण तथा सच्चाई से भरा लेखन कर सके। उनके लेखन में मनुष्य और कलाकार एक हो गए हैं, निजी और सार्वजनिक परस्पर ऐसे मिले हुए हैं कि उन्हें अलग-अलग नहीं किया जा सकता। जिस चीज ने उन्हें आत्यंतिक शक्ति दी और उनकी रचनात्मक ऊर्जा को आत्यंतिक स्तर तक विमुक्त किया, वह संभवत: सामाजिक न्याय और नैतिकता के सवालों के साथ उनका सघन जुड़ाव था। 

गरीबी और भूख, निरक्षरता, स्त्री की निम्न स्थिति, विधवाओं की दुर्दशा, जात्याभिमान, ग्रामीण कर्जेदारी, अस्पृश्यता और सांप्रदायिक मतांधता सभी तरह की सामाजिक गैरबराबरी आदि समस्याएं जो प्रेमचंद के दौर की थीं, आज भी हमारे सामाजिक और राजनीतिक जीवन को विकृत कर रही हैं। नहीं है तो बस वैसी लेखनी जो उतने सशक्त और विशिष्ट तरीके से इन समस्याओं को उठा सके, जिस तरह प्रेमचंद ने उन्हें उठाया था। प्रेमचंद ने आजादी के साथ-साथ अपने दौर के जिस एक और सबसे महत्वपूर्ण पहलू पर अपनी दृष्टि केंद्रित की वह है सांप्रदायिकता। प्रेमचंद ने साफ-साफ महसूस किया था कि राष्ट्रीय मुक्ति की राह में सांप्रदायिकता एक बड़ी बाधा बन चुकी है। 


उन्होंने बार-बार यह याद दिलाने की कोशिश की कि सांप्रदायिकता के मूल में दरअसल धनी-मानी लोग, जमींदार और सामंत हैं। आम किसानों, खेतिहर मजदूरों को बांटने के लिए ही वे सांप्रदायिक राजनीति का सहारा लेते हैं। प्रेमचंद मानते हैं कि सांप्रदायिकता फैलाने का कारण धर्म, मजहब या धार्मिक रुझान नहीं है बल्कि यह तभी उभरती है जब हमारा आंदोलन शिथिल होता है। 

'सत्याग्रह' प्रेमचंद की ऐसी ही एक कहानी है जिसमें हंसी-हंसी में प्रेमचंद समाज की कुछ कठोर सच्चाइयों और विसंगतियों पर उंगली उठाते हैं। सांप्रदायिकता, धार्मिक कठमुल्लापन और राजनीति के साथ धर्म के घालमेल के परिणामस्वरूप किस तरह संस्कृति तबाह हो जाती है और देश की आजादी खतरे में पड़ जाती है, यह दिखाने के लिए प्रेमचंद ने तत्कालीन बनारस शहर में लाट साहब के आगमन की घटना को माध्यम बनाया है, जहां इस अवसर पर शहर में हो रही हड़ताल की तैयारियों को रोकने की नाकाम कोशिश में शहर के प्रतिष्ठित पंडित मोटेराम शास्त्री सरकार से रिश्वत खाकर अनशन पर बैठ जाते हैं। व्यापारियों की अंग्रेज भक्ति, औपनिवेशिक शासकों और सामंतों का गठबंधन, अफसरशाही द्वारा आका को खुश करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने की प्रवृत्ति तथा स्वाधीनता आंदोलन से जनसामान्य के जुड़ाव जैसे अनेक विषय इस कहानी में पहले से ही मौजूद थे, पर सफदर हाशमी और हबीब तनवीर के नाट्यरूपांतरण में यह हमारे समय की विडंबनाओं और विसंगतियों का प्रामाणिक दस्तावेज बन गया है। 

चर्चित निर्देशक अरविंद गौड़ के निर्देशन में पिछले दिनों राजधानी की सर्वाधिक सक्रिय नाट्य संस्था अस्मिता द्वारा श्रीराम सेंटर में मंचित प्रेमचंद की इसी कहानी पर आधारित नाटक 'मोटेराम का सत्याग्रह' ने एक बार फिर से धर्म और राजनीति की दुरभिसंधि के समाज पर पडऩे वाले घातक प्रभावों को अपने विशिष्ट अंदाज में प्रस्तुत किया। 

आम तौर पर अपने नाटकों में राजनीतिक-सामाजिक विषयों पर गंभीर टिप्पणी करने के लिए जाने जाने वाले अरविंद गौड़ ने इस आख्यान को जीवंत बनाए रखने वाले हास्य के विविध अर्थभेदों को इतनी कुशलता के साथ पेश किया है कि वे न सिर्फ हमारा स्वस्थ मनोरंजन करते हैं बल्कि हमारे दिमाग को, हमारी चिंतन शक्ति को भी झकझोर देते हैं। उनके अन्य नाटकों की तरह यहां भी हमें सच्चाई और सरलता की वह खनक मिलती है, जो अपनी जनता की जिंदगी और नियति के साथ एक रचनाकार के गहरे जुड़ाव से आती है। नाटक में मौजूदा दौर की एक जीवंत, सुस्पष्ट और व्यापक तस्वीर उभरती है। 'मोटेराम का सत्याग्रह' में अनुभूतियों की जितनी तीव्रता दिखाई पड़ती है, उसके मूल में संगीता गौड़ के संगीत की बड़ी भूमिका है। 

उन्होंने नाटकीय कार्य-व्यापार को बल देने वाले और कथास्थितियों को अर्थ-सघन बनाने वाले एक अनूठे रंग-संगीत का उन्मेष किया है। प्रस्तुति में शिव चौहान (पंडित मोटे राम), बजरंग बली तिवारी (मजिस्ट्रेट), शिल्पी मारवाह (चमेली जान), मनोज यादव (खोमचे वाला), गौरव मिश्र (थ्री नॉटथ्री) और राहुल खन्ना (इंस्पेक्टर ऑफ पुलिस) ने अपनी भूमिकाओं में काफी प्रभावित किया। पांच दर्जन से अधिक अभिनेता अभिनेत्रियों की मौजूदगी वाली इस प्रस्तुति को देखना अपने आप में एक विरल अनुभव है। 

राजेश चन्द्र 
राजेश चन्द्र रंगकर्मी, नाटककार, अभिनेता, निर्देशक, अनुवादक एवं पत्रकार | पटना रंगमंच से लंबे समय तक जुडाव | विगत दो दशकों से रंग-आन्दोलनों, कविता, संपादन और पत्रकारिता में सक्रिय | हिंदी की कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, आलेख तथा समीक्षाएँ प्रकाशित | वर्तमान में दिल्ली में निवास | दैनिक समाचार पत्र "दैनिक भास्कर" के दिल्ली संस्करण के लिए रंगमंच विषय पर नियमित लेखन | उनसे rajchandr@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है |  यह आलेख दैनिक भास्कर 24 मार्च 2012 को प्रकाशित |

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